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________________ वर्णी-वाणी निश्चय करा दो कि तेरी अपेक्षा मैं ही बल शाली हूँ, तुझे विषय ग्रहण न करने दूगा । जहां दस पांच अवसरों पर आप ने इस तरह विजय पा ली अपने आप इन्द्रियां आपके मन के आधीन हो जावेंगी । जिस विषय सेवन करने से आपका उद्देश्य काम तर करने का था वह दूर होकर शरीर रक्षा की ओर आपका ध्यान आकर्षित हो जायगा । उस समय आपकी यह दृढ़ भावना होगी कि मेरा स्वभाव तो ज्ञाता दृष्टा है, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यवाला है। केवल इन कर्मों ने इस प्रकार जकड़ रखा है कि मैं निज परणति को परित्याग कर इन विषयों द्वारा तृति चाहता हूँ। यह विषय कदापि तृप्ति करने वाले नहीं । देखने में तो किंपाक सदृश मनोहर प्रतीत होते हैं किन्तु परिपाक में अत्यन्त विरस और दुःख देने वाले हैं । मैं व्यर्थ ही इनके वश होकर नाना दुखों को खनि हो रहा हूँ। इस तरह की भावनाओं से जीवन में एक नवीन स्फूर्ति और शुभ भावनाओं का सञ्चार होता है, विषयों की ओर से विरक्ति होकर सुपथ की ओर प्रवृत्ति होती है । ११. जिन उत्तम कुल शील धारक प्राणियों ने गृहस्था वस्था में उदासीन वृत्ति अवलम्बन कर विषय सेवन किये वे ही महानु भाव उस उदासीनता के बल से इस परम पद के अधिकारी हुए । श्री भरत चक्रवर्ती को अन्तर्मुहूर्त में ही अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी ने संवरण किया वह महनीय पद प्राति इसी भावना का फल है। ऐसे निर्मल पुरुष जो विषय को केवल रोगवत् जान उपचार से औषधिवत् सेवन करते हैं उन्हें यह विषयाशा नागिन कभी नहीं डॅस सकती। १२. संसार में जो व्यक्ति काम जैसे शत्रुपर विजय पा लेते हैं वही शूर है । उन्हीं की शुभ भावनाओं के उदयाचल पर उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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