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________________ १० : अनेकान्त और स्याद्वाद और उसके भारसे नम (दब) भी जाते हैं। यहाँ शब्दोंमें विरोध है। जब लक्ष्मी तृणके समान है तो उसके भारसे कोई कैसे दब सकता है। लेकिन अर्थमें यहाँ कोई विरोध नहीं है। उक्त वाक्यका ठीक अर्थ यह है कि बड़े लोग लक्ष्मीको तृणवत् समझते हैं लेकिन लक्ष्मी के होनेपर भी वे नम्र रहते हैं, उद्धत नहीं होते। इसी प्रकार घटके सत् और असत् होने में जो विरोध प्रतीत होता है वह केवल शाब्दिक विरोध है। जब हम सत् और असत् के अर्थ पर विचार करते हैं कि घट सत् और असत् क्यों है तो उस समय विरोधकी गन्ध भी नहीं आती। घट अपनी अपेक्षासे है और पट आदिकी अपेक्षासे नहीं है। इसमें विरोधकी कौन-सी बात है। विरोध तो तब होता जब जिस दृष्टिसे वह सत् है उसी दृष्टिसे वह असत् भी होता। यदि कोई घटको अपने स्वरूप आदिकी अपेक्षासे सत् और उसी अपेक्षासे असत् कहता है तो उसके कहने में विरोध स्पष्ट है । लेकिन अनेकान्त सिद्धान्त ऐसा कभी नहीं कहता। वह तो अपने दृष्टिकोणको पहिले ही उपस्थित कर विरोधका अवसर ही नहीं आने देता। घटका सद्भाव घटकी अपेक्षासे ही है, पटकी अपेक्षासे नहीं। यदि पटकी अपेक्षासे भी घटका सद्भाव हो अर्थात् पटरूपेण भी घट हो तो जिसप्रकार पट आच्छादनका काम करता है उसी प्रकार घटको भी वह काम करना चाहिए। अर्थात् जो जो काम पट करता है वह सब काम घटको भी करना चाहिए। और जिसप्रकार पटरूपेण भी असत् हो तो घटको अपना काम भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि असत् पदार्थके द्वारा किसी भी प्रकारको अर्थक्रिया नहीं होती है। शश ( खरगोश )के शृङ्ग ( सींग )से धनुष नहीं बनता है और न उससे वाण ही चलाए जाते हैं। उक्त कथनका फलितार्थ यह है कि घट न सर्वथा सत् है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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