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________________ अनेकान्त और स्याद्वाद : ९ स्वरूप आदि चतुष्टयकी अपेक्षासे सब वस्तुओंको सत् कौन नहीं मानेगा और पररूप आदि चतुष्टयकी अपेक्षासे उनको असत् कौन नहीं स्वीकार करेगा। इस प्रकारकी व्यवस्थाके अभावमें किसी भी तत्त्वको व्यवस्था नहीं हो सकती है । प्रत्येक पदार्थका अपना स्वरूप होता है जो कि अन्य सब पदार्थोके स्वरूपसे भिन्न होता है। इसीप्रकार उसका अपना क्षेत्र, अपना काल और अपना भाव ( स्वभाव ) भी होता है। इन्हीं चारोंका नाम स्वरूपादि चतुष्टय है। अपने स्वरूपादिसे भिन्न जो पर पदार्थों के स्वरूपादि चतुष्टय हैं वे पररूपादि चतुष्टय कहलाते हैं । घट घटद्रव्यको अपेक्षासे घट है, पट ( वस्त्र ) द्रव्यकी अपेक्षासे घट नहीं है। उसका जो अपना क्षेत्र है उसकी अपेक्षासे वह घट है, पट-क्षेत्रकी अपेक्षासे धट नहीं है । जिस काल ( पर्याय )में वह है उस कालकी अपेक्षासे घटका सद्भाव है, पटके कालकी अपेक्षासे घटका सद्भाव नहीं है । इसीप्रकार अपने स्वभावकी अपेक्षासे घटका अस्तित्व है और पटके स्वभावकी अपेक्षासे घटका अस्तित्व नहीं है । जिन लोगोंको घटके सत् और असत् होनेमें विरोध प्रतीत होता है क्या उन्होंने कभी इस बात पर भी विचार किया है कि घटको घट ही क्यों कहते हैं पट क्यों नहीं कहते ? घटको घट इसलिए कहते हैं कि घटका काम घट ही करता है, पट नहीं। दूसरे शब्दोंमें घट अपनी अपेक्षासे ही घट है पटकी अपेक्षासे नहीं। अर्थात् घट अपनी अपेक्षासे सत् है और पट आदि अन्य समस्त पदार्थोंकी अपेक्षासे असत् है । घट है भी और नहीं भी है ऐसा सुनने में विरोध तो अवश्य मालूम पड़ता है लेकिन यह विरोध साहित्यके विरोधाभास अलंकारके समान ही है। एक वाक्य है- 'महात्मानः लक्ष्मी तृणवन्मन्यन्ते । तद्भारेण नमन्त्यपि।' बड़े लोग लक्ष्मीको तृणके समान समझते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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