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________________ सहयोग करने, सहकारिता निभाने के लिए आ ही जाते हैं। इस धरती पर ऐसा एक भी प्राणी नहीं है, जिसके अन्तर्हदय में प्रेम, दया और करुणा न हो । स्वयं महायोद्धा अर्जुन भी करुणाभिभूत हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे अरिष्टनेमि हुए थे । अरिष्टनेमि विवाह करने के लिए राजीमति के द्वार पहँचते हैं, तो उन्हें पशओं की चित्कार सुनाई देती है। पशु अपनी मुक्ति के लिए अरिष्टनेमि का आह्वान करते है । अरिष्टनेमि, जो विवाह के लिए राजीमति के द्वार पर बारात लेकर पहुँचे थे, पशुओं का क्रन्दन सुनकर लौट पड़े । तब एक दूल्हे की विवाह-यात्रा संन्यास की शोभायात्रा में बदल गई। अर्जुन भी इसी तरह करुणाभिभूत हो उठा कि मैं किस व्यक्ति से संग्राम करूं? माना दुश्मनों को मार गिराना मेरे लिये कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन जिस पितामह और जिन गुरुजन के चरणों में हम पांडव सदैव नत-मस्तक रहे हैं, उन पर तीर कैसे चलाऊं? तब एक महान् योद्धा अपने परम श्रेय को देखते हुए अपनी प्रत्यंचा को गिरा देता है और कहता है-'न श्रेयोनुपश्यामि, हत्वा स्वजनमाहवे।' कृष्ण ! मैं अपने स्वजन-समुदाय की हत्या करके अपना कल्याण नहीं देखता । अगर पितामह और गुरुजन को मारकर मुझे त्रैलोक्य का राज्य भी मिलता है, तब भी उस राज्य को ठुकरा दूंगा । इनकी हत्या करने की बजाय अगर अन्न की भीख मांगकर खानी पड़े, तो अर्जुन वह सहर्ष स्वीकार कर लेगा, लेकिन कृष्ण ! मुझसे यह युद्ध नहीं हो पायेगा। अर्जुन तो पूरी तरह से पसीना-पसीना हो गया, पस्त हो गया। युद्ध करता, तो विजित होता या परास्त, लेकिन वह तो इससे पहले ही पस्त हो उठा । अर्जुन संकल्प ले लेता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा । तब एक सारथी अपना कर्त्तव्य निभाता है। श्रीकृष्ण अपने रथवाहक को कर्त्तव्य की प्रेरणा देते हैं । परमात्मा कहा जाने वाला कोई भी व्यक्ति कभी युद्ध की प्रेरणा नहीं देगा, लेकिन उस समय श्रीकृष्ण परमात्मा के रूप में नहीं, सारथी के रूप में थे। जो कर्त्तव्य एक सारथी निभाता है, वही कर्त्तव्य उस समय श्रीकृष्ण ने निभाया। श्रीकृष्ण मुस्कराए और कहने लगे, अर्जुन ! यह तुम्हें शोभा नहीं देता। अर्जुन जैसा व्यक्ति नपुंसकता को प्राप्त हो जाये, इससे तो क्षत्रियत्व और पौरुषत्व ही कलंकित होगा। तब गीता के रूप में पहला सूत्र निष्पन्न होता है। यही वह सूत्र है, जिस पर गीता टिकी हुई है। 14 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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