SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९ 'भन्ते, हम आपको इस मन्दिर में नहीं ठहरने देंगे। यह शूलपाणि यक्ष का मन्दिर है। कोई भी मनुष्य यहाँ रात्रिवास करे, तो वह सबेरे जीवित नहीं निकलता है। यक्ष का कोपभाजन हो कर वह मौत के घाट उतार दिया जाता है। • भन्ते, हम आपके आवास के लिए अन्यत्र सुन्दर व्यवस्था कर देंगे।' ओ. . . ! तब तो यही मन्दिर मेरा एकमात्र आवास यहाँ हो सकता है। इसी के निमंत्रण पर तो यहाँ आया हूँ। · · ·और मैं अभय मुद्रा में दोनों हाथ उठा कर, अविचलित पगों से फिर उस टीले की ओर बढ़ चला। ग्रामजन दौड़े आये और चारों ओर से मुझे घेर कर उन्होंने मेरी राह रोक ली। उत्पल दैवज्ञ ने मेरे पैर पकड़ लिये और कातर कंठ से प्रार्थना करने लगा : 'नहीं भगवन्, यह हम नहीं होने देंगे। वैशाली के देवर्षि राजपुत्र श्रमण वर्द्धमान को पहचान रहा है। उनकी हमें जरूरत है। हमारी कष्ट-कथा सुनें और हमारा वाण करें। • • ।' मैंने आश्वासन की हथेली उठा दी। अनुमति पाकर उत्पल ने कहा : 'भन्ते श्रमण वर्द्धमान, इस ग्राम का नाम भी पूर्वे 'वर्द्धमान' था। अब यह अस्थिक ग्राम कहलाता है। इसकी एक बहुत कारुणिक कथा है। सुनने का कष्ट करें भगवन · · _ 'इस गांव के परले पार एक वेगवती नामा विकट नदी बहती है। पानी तो उसमें बहुत गहरा नहीं, पर कीचड़-कर्दम के कारण वह ऐसी दुर्गम और जटिल है, कि उसे पार करने का साहस जो भी करता है, वह उसके दलदल में सदा को सो जाता है। एक बार कौशाम्बी का एक धन नामा श्रेष्ठि अपने पांच सौ शकटों के एक सार्थ में विपुल वस्तु-सम्पदा लाद कर हमारे ग्राम को आ रहा था। नदी को उथली देख कर, उसके सार्थ के शकट पार जाने को उसमें चल पड़े। पर मझधार में आ कर उसकी सारी गाड़ियाँ गहरे कादव में फंस गई। सारथियों ने चाबुक मार-मार कर बैलों को चलाना चाहा। उनकी त्वचा उघड़ आई, और वे डकार कर आक्रन्द करने लगे। पर आगे न बढ़ सके। तब श्रेष्ठि को अपने अति बलिष्ट और प्रिय एक वृषभ का ख्याल आया। सो सब से आगे के शकट में उसको जोत कर, उसके साथ अन्य गाड़ियों को बाँध दिया और बड़ी कठिनाई से वे नदी पार उतर आये। 'पार तो उतर आये, प्रभु, लेकिन श्रेष्ठि के प्यारे उस बलवान बैल की बढ़ी दुर्गति हो गई । उसके शरीर के साँधे टूट गये, हड्डियाँ दरक गईं और चमड़े उघड़ आये । श्रेष्ठि बहुत दुखित हो विलाप करने लगा । दूर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy