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________________ मित्र, तृण और त्रिया, सुवर्ण और पाषाण, मणि और मृत्तिका, लोक और परलोक, सुख और दुःख सब को यह एक-सा उपलब्ध है। संसार और निर्वाण दोनों ही में यह समान हृदय से निग्रंथ विचरता है। ऐसा निष्कारण करुणाल है इसका मन, कि भवसागर में डूब रहे मुढ़ जगत को यह तट हो रहना चाहता है। सागर-मेखला से वलयित, विविध ग्राम, पुर, पत्तन, पर्वत अरण्यों से मंडित इस पृथ्वी पर यह पवन के समान अप्रतिबंध भाव से विचर रहा है . . । .. अरे, यह क्या हुआ? नहीं है कहीं कोई अलग वर्द्धमान। नहीं है कहीं कोई अन्य महावीर। बस केवल एक, एकाकी मैं हूँ, जो अपने ही को यों निर्गमन करते देख रहा हूँ। ___ जिस दिशा में चल रहा हूँ, उधर से भय के भैरव का निमंत्रण सुनाई पड़ रहा है। लोमहर्षण हो रहा है, और अपने बावजूद, उस भयावहता की ओर खिंचा चला जा रहा हूँ। जाने कौन, जाने किस जन्म में भय से संत्रस्त हुआ होगा। और वही चिर भयार्त आत्मा, अब स्वयम् मतिमान भय होकर प्रकट हुई है। · · ·सारे लोक को वह आतंकित किये हैं। · · ·फिर भी अपने आप में अपने ही भय से संत्रस्त हो कर, वह आत्मा कहीं वाण के लिए आक्रन्द कर रही है। उसे अपनी ही आत्मभीति से कौन मुक्त करें? बड़ी विषम है उसकी वेदना-ग्रंथि। उसका उन्मोचन कौन करे ? अबेर पूर्वाह्न में एक गांव के प्रांगण में आ पहुँचा। देखा कि वहाँ अस्थियों का एक स्तूपाकार ढेर लगा है । उसके आस-पास भी दूर-दूर तक अस्थियों से छाया एक पूरा मैदान फैला पड़ा है। मेरे सारे शरीर में वास की एक कैंप-कपी-सी दौड़ गई। मृत्यु, भय और विनाश को मैंने जैसे सामने खड़े देखा। · ·और देखते-देखते एक प्रबल आँधी-सी उठी । और उसमें वह हड्डियों का स्तूप और प्रान्तर उड़ कर दूर-दूर जाता दिखाई पड़ा। अनन्तर देखा, कि वह प्रांगण अब एक निर्जन उजाड़ प्रदेश मात्र रह गया है। उसमें एक दूरस्थ टीले पर कोई मंदिर दिखाई पड़ा। उसका एकान्त और नैर्जन्य मुझे अपने आवास के योग्य लगा। ___• • • मैं बेहिचक उस ओर बढ़ चला। तभी ग्रामजनों का एक टोला मेरे आसपास घिर आया। मैंने ऊँगली के संकेत से उन लोगों को विज्ञापित किया कि मैं इस मंदिर में वास करना चाहता हूँ। मुझे कोई मौनी मुनि समझ कर उन्होंने मेरे आशय को भांप लिया। तब उनके बीच से उत्पल नामक एक दैवज्ञ आगे आया, जो तीर्थंकर पार्श्वनाथ के धर्म-संघ का अनुसारी था। मेरी चर्या और चिन्हों से मुझे पहचान कर, वह मेरे प्रति प्रणत हुआ और ग्रामजनों की ओर से उसने निवेदन किया : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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