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________________ ७०२ जै० सा० इ० पू०पीठिका चतुर्विशतिस्तव, बन्दना, प्रतिकमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन छै आवश्यकों का कथन है। जिन क्रियाओं का प्रति दिन करना आवश्यक है उनका प्रतिपादन करनेसे इस ग्रन्थ का नाम आवश्यक सूत्र पड़ा है। दिगम्बर परम्परामें भी ये छै आवश्यक मान्य हैं और अंग बाह्यके भेदोंमें उनकी गणना पृथक् पृथक् की गई है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उन छहोंके संकलन को आवश्यक नाम दिया गया है। इसके रचयिताके विषयमें कोई उल्लेख नहीं मिलता । आवश्यक सूत्र पर आवश्यक नियुक्ति नामक व्याख्या है जिसे भद्रबाहु रचित माना जाता है। आवश्यक नियुक्तिके साथ ही आवश्यक सूत्र का प्रकाशन हुआ है। और उस पर मलय गिरि की टीका है । नियुक्तिके सिवाय उस पर दो प्राचीन टीकाएँ और भी हैं-एक चूर्णि और एक हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति । ___ २ दशवैकालिक-विकालमें भी पढ़ा जा सकनेके कारण इसे वैकालिक कहा जाता है और इसमें दस अध्ययन हैं इस लिये इसे दसवैकालिक कहते हैं। पहले अध्ययन का नाम द्रम पुष्पिका है । जैसे द्रुमके फूल को हानि पहुँचाए बिना भौंग उसका रस चूस लेता है वैसे ही जैन श्रमण प्रवृत्ति करता है। इसमें धर्म की प्रशंसा की गई है। दूसरे श्रामण्यपूर्विका अध्ययनमें नये प्रवजित श्रमण को धैर्य पूर्वक प्रवृत्ति करनेका सन्देश दिया गया है। तीसरे तुल्लिकाचारकथा नामक अध्ययनमें लघु आवार कथा है और आत्म संयम को उसका उपाय बतलाया है। चौथे षट्जीवनिका नामक अध्ययनमें आचार का सम्बन्ध छै कायके जीवोंसे होनेके कारण अन्य जीवों की रक्षा का कथन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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