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________________ श्रु तपरिचय ७०१. छठा छेदसूत्र पंचकल्प मूलरूपमें उपलब्ध नहीं है। विचारामृतसंग्रह के अनुसार पंचकल्प संघदास वाचक की कृति है। रत्न सागरमें जीतकल्प को छठा छेदसूत्र लिखा है। यह जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण की कृति है। इसमें जैन श्रमणोंके. आचारका तथा प्रायश्चित्त का वर्णन है । चार मूल सूत्र श्री वेबर' और विन्टर नीट्सने उत्तराध्ययन को प्रथम मूलसूत्र बतलाया है। उत्तराध्ययन वगैरह को क्यों मूलसूत्र कहा गया है यह स्पष्ट नहीं होता। 'मूल' शब्द का व्यवहार टीकाके आधार भूत ग्रन्थके लिये होता है। यतः इन सूत्र ग्रन्थों पर. महत्त्वपूर्ण प्राचीन टीकाएँ उपलब्ध हैं इस लिये उन्हें मूल सूत्र कहा जाता था ऐसा डा० विन्टर नीटस' का मत है। चापेन्टियर ने उत्तराध्यययन सूत्र की प्रस्तावनामें मूलसूत्र का अनुवाद किया है-'स्वयं महाबीरके शब्द' जो किसी भी तरह उचित प्रतीत नहीं होता। शुबिग की राय थी कि जो आध्यात्मिक पथके मूल अर्थात् शुरूमें स्थित हैं उनके लिये जो सूत्र थे उन्हें मूलसूत्र कहा गया था। श्री वेबर कहना था कि इन ग्रन्थों का यह नाम काफी अर्वाचीन है और मूल सूत्र का मतलब 'सूत्र से अधिक कुछ भी नहीं है। किन्तु ये सूत्रग्रन्थ गद्यसूत्र रूप नहीं हैं, किन्तु पद्योंमें हैं। उनमें उत्तराध्ययन और दशवकालिक विशेष प्राचीन है। १ आवश्यक-इस सूत्रमें छै अध्याय है। उनमें सामायिक, १-इं० एं, जि० २१, पृ० ३०६। . २- हि० इं० लि०, पृ० ४६६ का टि० १ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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