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________________ पाठ 22 : मयणसिरीए सिक्खा पाठ-परिचय : नेमिचन्द्रसूरि द्वारा रचित रचयचडरायचरियं में कई नारी पात्रों के उदात्त चरितों को प्रस्तुत किया गया है । तिलकसुदरी आदि रानियों के पूर्वभवों के प्रसंग में उदाहरण-स्वरूप मदनश्री की कथा कही गयी है । प्रस्तुत कथा में मदनश्री राजा विक्रमसेन को सदाचरण की शिक्षा देती है । विक्रमसेन के प्रेम-प्रस्ताव को सुनकर मदनश्री घबराती नहीं है, अपितु राजा को अपने यहां बुलाकर एक ही भोजन को कई सुन्दर थालियों में परोसकर वह समझातो है कि सभी युवतियों के भीतर मांस-मज्जा, रुधिर, हड्डियां आदि सभी समान है । वे केवल बाहर से आकर्षित दिखती हैं । अतः अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी युवती में आसक्त होना व्यर्थ है। राजा विक्रमसेन अपनी भूल के लिए क्षमा मांगता हुआ मदनश्री को पुरस्कृत करता है। उज्जेणीए नयरीए विक्कमसेणो राया। तेणं कयाइ कीलपत्थं निग्गच्छतेणं दिट्ठा गवक्खदुवारेण पासायतलसंठिया देसंतरगयपिययमा मयण सिरी सेट्ठिभारिया । पासत्तनिवेण य पेसिया तीए समीवं नियदासी । भरिणयं च गंतूण तीए- "मयणसिरि ! कयत्था तुमं जा महाराएण वि पत्थिज्जसि । जो, संदिळू तेण- सुदरि ! अमयमयस्सेव तुहदसणस्सुक्कंट्टियं मे हिययं । आगच्छंतु में दिणमेगमेत्थ, अहं वा तत्थेव पच्छन्नुभागच्छामि त्ति । ता देसु सुयणु ! पडिसंदेसं ।" तीएवि 'अहो राइणो ममोरि गरुनो अणुबंधो। न तीरए दूरट्ठिएहिं पडिबोहिउं' ति चिंतिऊण- 'पागच्छउ महारापो एत्थेव महप्पसाएणं' ति भणिकरण पेसिया सा दासी। 84 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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