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________________ कारण महा अनर्थ हो गया है ।' ऐसा पश्चाताप कर दूसरे दिन प्रातः काल में ही वह तपोवन को गया । उसने कुलपति को अपना प्रमाद और अपराध निवेदित किया । तब कुलपति ने अग्निशर्मा तापस को बुलवाया। और सम्मानपूर्वक उसके हाथों को पकड़ कर उन्होंने कहा - ' हे वत्स ! राजा के घर से जो तुम्हें बिना भोजन किये लौटना पड़ा है उसके लिए यह राजा बहुत दुखी हो रहा है । इसमें राजा का कोई दोष नहीं है । अत: अब पारणा का दिन आने पर निर्विघ्न पूर्वक, मेरे कहने से और इस राजा के बहुत आग्रह से तुम्हारे द्वारा इसके घर ही भोजन किया जाना चाहिए ।' अग्निशर्ना तापस ने कहा- 'भगवन् ! जो आपकी आज्ञा ।' फिर कालक्रम से राजा के द्वारा विषय सुखों का अनुभव किये जाते हुए एवं अग्निशर्मा के द्वारा कठिन तपचर्या की विधि को करते हुए एक माह व्यतीत हो गया। इसके उपरान्त पारणा का दिन उपस्थित होने पर राजकुल में अत्यन्त भागदौड़ मच गयी । राजा गुणसेन मन्त्री, सामन्तों के साथ और सेना सहित युद्धभूमि में जाने के लिए तैयार था । उसी समय में अग्निशर्मा तापस पारणा के लिए राजमहल में पहुँचा । तब उस अपार लोगों की भीड़ में राजा के प्रस्थान के लिए व्याकुल प्रधान सेवकों में से किसी ने भी अग्निशर्मा की तरफ ध्यान नहीं दिया । तब कुछ समय वहाँ बिताकर मदोन्मत्त हाथियों और घोड़ों के समूह की चपेट में आ जाने के भय से वह अग्निशर्मा राजा के महल से निकल गया । ( युद्ध से वापिस लौटने पर ) अग्निशर्मा के वापिस लौट जाने को सुनकर घबड़ाया हुआ वह राजा तुरन्त उसके रास्ते में चल पड़ा। नगर से नकलते हुए उसने अग्निशर्मा को देखा । तब वह राजा भक्तिपूर्वक उसके चरणों पर गिरकर आदरपूर्वक निवेदन करता है - 'हे भगवन् ! कृपा करिए, वापिस लौट चलिए । इस प्रकार की असावधानी वाले आचरण के लिए मैं लज्जित हूँ ।' तब अग्निशर्मा ने कहा'महाराज ! आपका यह दुःख बिना कारण के है। फिर भी इस दुःख को शान्त करने का उपाय है । विघ्नरहित फिर से पारणा का दिन आने पर आपके महल में आहार ग्रहण करूंगा । यह मैंने स्वीकार कर लिया है । अत: आप संताप न करें ।' प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 161 www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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