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________________ तब राजा ने वचपन के वृतान्त को यादकर लज्जा से झुकाये हुए मुख से कहा - 'भगवन् ! मैं वह महापाप कर्म करने वाला और आपके हृदय को संताप देने वाला अगणसेन है।' अग्निशर्मा तपास ने कहा-'हे महाराज ! आपका स्वागत है। आप अगुणसेन कैसे हुए ? क्योंकि आपके द्वारा ही दूसरों के भोजन पर पलने वाले मैंने अब इस प्रकार की तप-विभूति प्राप्त की है ।' राजा ने कहा-'अहो ! आपकी महानता, अथवा क्या तपस्वीजन प्रिय वचनों को छोड़कर अन्य बोलना जानते हैं ? चन्द्रबिम्ब से अग्नि की वर्षा नहीं होती है । अतः अब इसको रहने दें । हे भगवन् ! आपकी पारणा (भोजन) कब होगी ?' 'अग्निशर्मा ने कहा-'महाराज ! पांच दिनों के बाद ।' राजा ने कहा-'भगवन् । यदि आपको कोई अधिक आपत्ति न हो तो मेरे घर पर भोजन के द्वारा कृपा की जानी चाहिए । मैंने कुलपति के पास से आपकी विशेष प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में जान लिया है । अतः पहले से ही प्रार्थना कर रहा हूँ।' अग्निशर्मा ने कहा-'महाराज तब तक वह दिन आने दीजिए । कौन जानता है कि बीच में क्या होगा ?' राजा ने कहा-'भगवन् ! विघ्न को छोड़कर आप अवश्य आयें ।' अग्निशर्मा ने कहा-'यदि आपका ऐसा आग्रह है तो आपकी प्रार्थना स्वीकार की जाती है ।' तब प्रसन्नता से पुलकित अंग वाला राजा उन्हें प्रणाम कर कुछ समय वहाँ व्यतीत कर नगर को चला गया। पांच दिन व्यतीत होने पर पारणा के दिन अग्निशर्मा तापस पारणा के लिए सर्व प्रथम राजा के महल में ही प्रविष्ट हुआ। उस दिन में किसी प्रकार राजा गुणसेन के सिर में अत्यन्त पीड़ा उत्पन्न हो गयी । अतः पूरा राजकुल व्याकुल हो उठा । तब वह अग्निशर्मा तापस इस प्रकार के राजकुल में कुछ समय व्यतीत कर किसी के द्वारा शब्दों से भी उसकी खबर न लेने पर उस राज-गृह से वापिस आ गया । निकल कर तपोवन को चला गया। उसने कुलपति को सब समाचार निवेदित कर दिये । ___ इधर सिर की पीड़ा शान्त होने पर राजा गुणसेन के द्वारा सेवकों से पूछा गया। सेवकों ने यथास्थिति कह दी। राजा ने कहा-'अहो ! मेरी अधन्यता, महालाभ से मैं चूक गया और तपस्वी के शरीर को (भोजन ने मिलने से) पीड़ा पहुंचने के 160 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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