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________________ शौरसेनी में त का 'द', थ एवं ह का 'ध' भ का 'ह' में परिवर्तन होता है । यथा-जानाति-+जाणादि, कथयति+कधेदि आदि । गच्छतिगच्छ दि, गच्छदे; भवति+भोदि, होदि; इदानीम्+दारिंग; पठित्वा--पढिया, पढिदूण प्रादि रूप शोरसेनो के विशिष्ट प्रयोग हैं। महाराष्ट्री __ सामान्य प्राकृत का दूसरा नाम महाराष्ट्री प्राकृत है, ऐसी कई विद्वानों की धारणा है; किन्तु इसका यह नाम उत्पत्ति-स्थल के कारण ही अधिक प्रचलित हुआ है । महाराष्ट्र प्रदेश में जो प्राचीन प्राकृत प्रचलित थी, उसी के बाद काव्य और नाटकों की महाराष्ट्री प्राकृत का जन्म हुआ है। इस प्राकृत में संस्कृत के वर्गों का अधिकतम लोप होने की प्रवृत्ति पायी जाती है । इस कारण महाराष्ट्री प्राकृत काव्य में सबसे अधिक प्रयुक्त हुई है । अतः इसे साहित्यिक प्राकृत भी कहा जा सकता है। जैन काव्य-ग्रन्थों और नाटक प्रादि काव्य-ग्रन्थों की महाराष्ट्री प्राकृत में कुछ भिन्नता है; अतः कुछ विद्वान् महाराष्ट्री और जैन महाराष्ट्री, इसके ऐसे दो भेद भी मानते हैं । मागधी अन्य प्राकृतों की तरह मागधी में स्वतन्त्र रचनाएं नहीं पायी जातीं । केवल संस्कृत-नाटकों और शिलालेखों में इसके प्रयोग देखने में आते हैं । अतः प्रतीत होता है कि मागधी कोई निश्चित भाषा नहीं थी, अपितु उन कई बोलियों का उसमें सम्मिश्रण था, जिनमें ज के स्थान पर य, र+ल, स-+श तथा अकारान्त शब्दों में ए का प्रयोग होता था । मागधी का निश्चित प्रदेश तय करना कठिन है; किन्तु सभी विद्वान् इसे मगध देश की ही भाषा मानते हैं, जो अपने समय में राजभाषा भी थी। इसकी उत्पत्ति वैदिक युग को किसी कथ्य भाषा से मानी जाती हैं, यद्यपि इसकी प्रकृति शौरसेनी को माना गया है । शकारो, चांडाली और शाबरी जैसी लोक-भाषाए मागधी को ही प्रशाखाए हैं। प्राकृत गद्य-सोपान 125 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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