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________________ अर्धमागधी जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। प्राचीन आचार्यों ने मगध प्रदेश के ग्रर्धाशि में बोली जाने वाली भाषा को अर्धमागधी कहा है । कुछ विद्वान् इसमें मागधी भाषा की कतिपय विशेषताएं होने के कारण इसे अर्धमागधी कहते हैं । मार्कण्डेय ने शौरसेनी के निकट होने से मागधी को ही अर्धमागधी कहा है। वस्तुतः अर्धमागधी में ये तीनों विशेषताएं परिलक्षित होती हैं। पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी भाषा के बीच के क्षेत्र में बोली जाने के कारण इसका अर्धमागधी नाम सार्थक होता है । यद्यपि इसका उत्पत्ति स्थान प्रयोध्या को माना जा सकता है, फिर भी इसका महाराष्ट्री प्राकृत से अधिक सादृश्य है । इसके अस्तित्व में आने का समय ई. पू. चौथी शताब्दी माना जा सकता है । अर्धमागधी का रूप - गठन मागधी और शौरसेनी की विशेषताओं से मिलकर हुआ है । इसमें लुप्त व्यंजनों के स्थान पर यश्रुति होती है । यथाकिम् + सेणियं । क का 'ग', न का 'रण' एवं प का 'व' में परिवर्तन होता है । प्रथमा एकवचन में 'ए' तथा 'प्रो' दोनों होते हैं। धातु-रूपों में भूतकाल के बहुवचन में 'इंसु' प्रत्यय लगता है; तथा कृदन्त में एक धातु के कई रूप बनते हैं । यथा - कृत्वा के कट्टु, किच्चा, करिता, करित्ताणं आदि । शौरसेनी शौरसेनी प्राकृत शूरसेन (मथुरा) की भाषा थी। इसका प्रचार मध्यदेश में हुआ था | जैनों के षट्खंडागम प्रादि ग्रन्थों की रचना इसी में हुई थी। बाद में दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों की यह मूल भाषा बन गयी । उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से यह सब में प्राचीन प्राकृत है। जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त नाटकों में भी इसका प्रयोग हुआ है। इसमें कृत्रिम रूपों की अधिकता पायी जाती है । 124 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत गद्य-सोपान www.jainelibrary.org
SR No.003807
Book TitlePrakrit Gadya Sopan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages214
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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