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________________ ७४ श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि । मता, तथा ( इंजिना) विषयोनो संग नहीं करनारा, एवा मुनिनी ( सर्वसंपत्करी नामनी) निक्षा, गृहस्थीना तथा तेना शरीरना उपकार माटे कहेली े. टीकानो जावार्थ- जमता एवा यतिनी “सर्वसंपत्करी " निहा बे. हवे ते यति शामाटे जमतो ? ते कहे बे. वृद्ध केतां वयथी, चारित्रथी, ज्ञानथी स्थविर ( तथा यदि शब्दयी बालक, रोगी, शिष्य, परोणा आदिकनुं पण ग्रहण करकुं; ) तेने माटे; करीने पोतानुंज पेट नरवामां तत्पर अंतःकरणवाला - पाक आदिको व्यवच्छेद कह्यो; वली वृद्ध श्रादिकनुं वैयावछ, सघला कल्याणरूपी वेलडीउना मूल सरखुं छे. कां बे के, वेयावचं कारह, संजमगुणेधरंताणं ॥ सव्र्वकिरि पडिवाई, वेयावच्चं अपडिवाई ॥ १ ॥ - संयम गुणने धरनारार्जुनी वेयावच्च करो ? सघली क्रिया (कदाच ) निरर्थक जाय बे, पण वैयावञ्च निरर्थक जती नथी. माटे ते वैयावनी अपेक्षा नहीं राखनार साधुने, “सर्वसंपत्करी" चिहानुं जागी पणुं शी रीते यावी शके ? वली ते यति केवो ? तोके, संग केतां शब्दादिक ( इंडि ना) विषयोनो संग नहीं करनारो; अथवा वृद्ध अथवा रोगी माटे मतां थकां तेज॑ना उद्देशथी मलेलां मनोहर दाल, जात, कूर, श्रादिक जोजनमां "असंग ” केतां लालसा नहीं राखनारो; अने तेथी उलटी रीते चालनार साधुने उपर वर्णवेला अलुब्ध साधुश्री दो पाड्यो. वली ते यति केवो? तोके, जमराना दृष्टांतथी जमतो; - र्थात् जेम नमरो केटलाक मकरंदना कणोने लेइने, तथा तेथी पुष्पने पण पीडा नहीं उपजावीने, पोताना आत्माने प्रसन्न करे बे, तेम मुनिरूपी जमराठे पण थोडां थोडां न्नरूपी मकरंदने प्रद करता था, तथा तेथी गृहस्थी रूपी पुष्पने पीडा नहीं उप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003686
Book TitleHaribhadrasuri krutanyashtakani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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