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________________ १६४ सूक्तमुक्तावली धर्मवर्ग ॥ श्रथ प्रमाद विषे॥ सद् मन सुख वांले जुःखने को न वांबे, नदि धरम विना ते सौख्य ए संपजे ॥ इह सुधरम पामी का प्रमादे गमीजे, अति अलस तजीने उद्यमे धर्म कीजे ॥११॥ जावार्थः- सघलां प्राणी सुखने ई डे पण पुःखने कोई चतुं नथी, परंतु धर्म विना ते सुख मलतुं नथी, वली आवो उत्तम धर्म मख्या बतां प्रमाद करीने तुं तेने केम गमावी दे ? ए तने युक्त नथी, माटे आलस प्रमाद बमीने धर्मने विषे उद्यम कर, के जेथी सुख मले. ७१ इह दिवस गया जे तेह पाग न आवे, धरम समय आले कां प्रमादे गमावे ॥धरम नविकरे जे आयु आले वहावे, शशि नृपतिपरे त्यूं सोचना अंत पावे ॥२॥ नावार्थः-श्रा जे दीवसो गया ते फरी पाना आवता नथी, माटे प्रमादने वश पड्यो थको धर्मनो समय फोकट केम गमावे ? जे धर्म नथी करतो ते पोतानुं आयुष्य फोकट हारी जाय ,अने ते शशिराजानी पेठे आवटे सोचना पामे जे. ७५ ॥अथ साधुधर्म विषे ॥ शार्दूल विक्रीमित बंद.॥ जे पंच व्रत मेरु नार निवदे, निःसंग रंगे रदे ॥ पंचाचार धरे प्रमाद न करे, जे परिस्सासदे॥पांचे इंडि तुरंगमा वश करे, मोदार्थने संग्रहे ॥ एवो कर साधु धर्म धन ते, जे ज्यूं ग्रहे त्यूं वदे ॥ ३ ॥ जावार्थः- साधु केवा ? तो के-जे मेरुपर्वतना पुःखे करी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003685
Book TitleSuktavali yane Suktmuktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1911
Total Pages368
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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