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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १७३ बिहेन नद्योयं पढिय सबलोय अरहंतचेश्याराहणु स्सग्गं काउं उद्योयं चिंतिय सुय सोहि निमित्तं पुरक रवरदीवढं कट्टिय पुणो पणवीसुस्सासं कानस्सग्गं कानं पारिय सिमलवं पढित्ता सुयदेवयाए कानस्स ग्गे नमोकारं चिंतिय तीसे शुइ दे सुश्वा ॥ एवं खित्तदेवयाए वि कानस्सग्गे नमोकारं चिंतिकण पा रिय तबुई दालं सोवा पंचमंगलं पढिय संमासए प मक्जिय उवविसिय पुत्वं व पुत्तिं पहिय वंदणं दा बामि अणुसहिति नणिय जागृहि वा वट्ठमाण स्करस्सरा तिनिथुईन पडिय सक्कलयं सुत्तंच नणिय पायरियाई वंदिय पायबित्तविसोहण कानस्सग्गं का न्योय चनक्क चिंति इत्ति ॥ देवसिय पडि कमणविही॥
इस पातकी नाषाः-जैसें विधिप्रपाके पाठकी ह म यही ग्रंथमें ऊपर कर आए है तैसें जान लेनी. ईस पाउमेंनी प्रतिक्रमणेमें चार थुईसें चैत्यबंदना क रनी और श्रुतदेवता तथा देवदेवताका कायोत्सर्ग अरु तिनकी शुश्यों कहनी कही है.
तथा प्रतिक्रमणा सूत्रकी लघुवृत्तिमें श्रीतिलका चार्यै चार थुईसें चैत्यवंदना करनी लिखी है तथा
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