SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ प्रतिक्रमण सूत्र । * भुवणारण्णनिवास दरिय परदरिसणदेवय, जोइणिपूयणखित्तबालखुद्दासुरपसुवय । तुह उचट्ठ सुनट्ठ सुट्ठ अविसंलु चिट्ठहि, इय तिहुअणवणसी पास पावाइ पणासहि ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ' भुवणारण्णनिवास' जगत् रूप वन में रहने वाले 'दरिय' अभिमानी 'परदरिसणदेवय' और और मत के देवता [ तथा ] 'जोइणिपूयणखित्तत्रालखुद्दासुरपसुवय' योगिनी, पूतना, क्षेत्रपाल तथा क्षुद्र असुर-रूप पशुओं के झुंड 'तुह' तुम से 'उत्तट्ठ' घबड़ाये; 'सुनह' भागे [ और ] 'अविसंल सुट्टू चिट्ठ हि निश्चय ही खूब सावधान हो कर रहे, 'इय' इस लिये 'तिहुअणवणसीह पास, हे तीन लोकरूप वन के सिंह पार्श्व ! 'पावाइ पणासहि' [मेरे ] पापों को नष्ट करो ॥ १६ ॥ भावार्थ -- संसाररूप वन में रहने वाले मदोन्मत्त परदेवता - बुद्ध आदि और जोगिनी, पूतना, क्षेत्रपाल और तुच्छ असुररूप पशु गण तुम्हारे डर के मारे बेचारे घबड़ाये, भागे और बड़ी हुशियारी से रहने लगे; इसी लिये तुम 'त्रिभुवन-वन सिंह ' हो । मेरे पापों को दूर करो ||१६|| । * भुवनाऽरण्यनिवासा दृप्ताः परदर्शनदेवताः, योगिनी पूतनाक्षेत्रपालक्षुद्रासुरपशुवजाः । त्वदुत्त्रस्तास्सु नष्टास्सुष्ट्वविष्टुलं तिष्ठन्ति, इति त्रिभुवनवनसिंह पार्श्व पापानि प्रणाशय ॥१६॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy