SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट । 1 कय अविकलकल्लाणवल्लि उल्लूरिय दुहवणु, दाविय सग्गपवग्गमग्ग दुग्गइगमवारणु । जयजंतुह जणएण तुल्ल जं जणिय हियावहु, रम्मु धम्मु सो जयउ पास जयजंतु पियामहु ||१५|| अन्वयार्थ - 'जं' जिस के द्वारा 'अविकलकल्लाणवल्लि कय' निरन्तर कल्याण-परंपरा की गई, 'दुहवणु उल्लूरिय' दुःखों का वन नष्ट किया गया, 'सापवग्गमग्ग दाविय' स्वर्ग और अपवर्ग - मोक्ष का मार्ग दिखाया गया, 'हियावहु रम्मु धम्मु जणिय ' हितकारी और रमणीक धर्म प्रगट किया गया, 'दुग्गइगम वारणु' [ जो] दुर्गति का जाना रोकने वाला [ और ] 'जयजतुह जणएण तुल्ल' जगत् के जन्तुओं का जनक -पिता के बराबर है [ अत एव ] 'जयजंतु पियामह' जगत् के जन्तुओं का पितामह है, 'सो पास 'जय' वह पार्श्व जयवन्त रहे ||१५|| भावार्थ - वह पार्श्व प्रभु संसार में विशेषरूप से वर्तमान रहे कि जिस ने जीवों का निरन्तर कल्याणों के ऊपर कल्याण किया, दुःख मेंट, स्वर्ग और मोक्ष का रास्ता बताया, दुर्गति जाते हुए जीवों को रोका, अत एव जिस ने पिता की तरह जीवों का पालन-पोषण किया, सुखकर और हितकर धर्म का उपदेश दिया, इसी लिये जो 'जगज्जन्तुपितामह' साबित हुआ || १५|| 1 कृताऽविकलकल्याणवलिरुच्छिन्नो दुःखवनः, दर्शितस्स्वर्गापवर्गमार्गे दुर्गतिगमनवारणः । जगज्जन्तूनां जनकेन तुल्यो येन जनितो हितावहः, रम्यो धर्मस्स जयतु पाखो जगज्जन्तुपितामहः ॥१५॥ ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy