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________________ अजित-शान्ति स्तवन । २७१ बिंदिऊण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं । पणमिऊण य जिणं सुरासुरा, पमुइआ सभवणाइँ तो गया॥२४॥ (खित्तय।) तं महामुणिमहं पि पंजली, रागदोसभयमोहवज्जियं । देवदाणवनरिंदवंदिअं, संतिमुत्तममहातवं नमे ॥२५॥ (खित्तयं ।) .. अन्वयार्थ -- 'वरविमाण' उत्तम विमान, 'दिव्वकणगरह'. दिव्य सुवर्णमय रथ और 'तुरय' अश्वों के 'पहकरसएहिं सैकड़ों समूहों से 'हुलिअं' शीघ्र 'आगया' आये हुए, 'ससंभमोअरण' जल्दी उतरने के कारण 'खुभिय' व्यग्र, 'लुलिय' हिलने वाले और 'चल' चञ्चल ऐसे] 'कुंडल' कुण्डलों, 'अंगय' बाजूबन्धों तथा 'तिरीड' मुकटों से 'सोहंतमउलिमाला' शोभमान [ऐसी] मस्तक माला वाले, [ ऐसे, तथा-] . 'आयरभूसिअ' इच्छापूर्वक भूषण पहिने हुए, 'संभमपिंडिअत्वरा से इकट्ठे हुए और 'सुटुसुविम्हिय अत्यन्त विस्मित :ऐसे] 'सव्वबलोघा' संपूर्ण परिवार-वर्ग को लिये हुए, 'उत्तमकं. + वन्दित्वा स्तुत्वा ततो जिनं, त्रिगुणमेव च पुनः प्रदक्षिणम् । प्रणम्य च जिनं सुरासुराः, प्रमुदिताः स्वभवनानि ततो गताः॥२४॥ । ते महामुनिमहमपि प्राञ्जलिः, रागद्वेषभयमोहवर्जितम् । - देवदानवनरेन्द्रवन्दितं, शान्तिमुत्तममहातपसं नमामि ॥२५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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