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________________ १५८ प्रतिक्रमण सूत्र । यह एक घिनावनी बीमाी वाले साधु की सेवा करने में इतना दृढ रहा कि अन्त में इन्द्र को हार माननी पड़ी। १३. सिंहगिरि-वजस्वामी के गुरु ।-अव०पू० २९३ । १४. कृतपुण्यक-श्रेष्ठि-पुत्र। इसने पूर्व भव में साधुनों को शुद्ध दान दिया । इस भव में विविध सुख पये और अन्त में दीक्षा ली। -आव०नि० गा०८४६ तथ. पृ०७३। १५. सुकोशल-यह अपनी मा, जो मर कर बाघिनी हुई थी, उस के द्वारा चीरे जाने पर भी काउस्लग से चलित न हुमा और अन्त में केवलज्ञानी हुया। १६. पुण्डरीक -यह इतना उदार था कि जब संयम से भ्रष्ट हो कर राज्य पाने की इच्छा से अपना भाई कण्डरीक घर वापिस श्राया तब उस को राज्य संप कर इस ने स्वयं दीक्षा ले ली। -ज्ञातार्धम० अध्ययन १६ । १७. केशी-ये श्रीपार्श्वनाथस्वामी की परम्परा के साधु थे। इन्हों ने प्रदेशी राजा को धर्म-प्रतिरोध दिया था और गौतमस्वामी के साथ बड़ी धर्म-चर्चा की थी। -उत्तराध्ययन अध्ययन २५ ।. १८. करकण्डू-चम्पा-नरेश दधिवाहन की पत्नी और चेडा महाराज की पुत्री पद्मारती का साध्वी अवस्था में पैदा हुग्रा पुत्र, जो चाण्डाल के घर बड़ा हुआ और पीछे मरे हुए साँड़ को देख कर बोध तथा जातिस्मरणज्ञान होने से प्रथम प्रत्येक-बुद्ध हुआ। -उत्तराध्य अध्य० ६, भावविजय-कृत टीका पृ० २०३ तथा श्राव० भाष्य गा० २०५, पृ० ७१६ । १९-२०. हल्ल-विहल्ल-श्रेणिक की गनी चलणा के पुत्र । ये अपने नाना चेडा महाराज की मदद ले कर भाई कोणिक के साथ सेचनक नामक हाथी के लिये लड़े और हाथी के मर जाने पर वैराग्य पा कर इन्हों ने दीक्षा ली। आव० पृ० १९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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