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________________ द्वितीय प्रकाश. शए " दंडिज जेण जिउँ, वज्जिय निय देह सयण धम्मठें । सो आरंभो केवल, पावफलोऽणत्य दंडत्ति ॥ १ ॥ अवघ्नाय पाव नवएस, हिंसदाणप्पमाय चरिएहिं । जं चउहा सो मुच्चर, गुणव्वयं तं भवे तश्यं ॥॥ "पोतानो देह, स्वजन अने धर्मनो अर्थ वर्जीने बाकीना जे जे आरंजोमां जीव दंमाय तेवो आरंन के जे केवल पाप रुप फलने आपनार मे, ते अनर्थदम कहेवाय . ते उर्ध्यान, पापोपदेश, हिंसा अने प्रमाद, ए चार आचरवाथ अनर्थदंम होय . ए चारनो जे त्याग करवामां आवे ते त्री अनर्थदंग विरमण नामे गुणव्रत कहेवाय जे." १-२ बीजी गाथामां आ प्रमाणे विशेष व्याख्या . अपकृष्ट एटले हीण ध्यान, ते आर्त तथा रौजध्यान कहेवाय जे. तेने माटे कहे जे के" राज्योपत्नोग शयनासन वाहनषु। स्त्री गंधमाल्य मणिरत्न विनूषणेषु ॥ इच्छानिवाष मति मात्रमुपैति मोहात् । ध्यानं तदातमिति संप्रवदंति तज्ज्ञाः ॥ १ ॥ संछेदनै दहन नंजन मारणैश्च । बंध प्रहार दमनै विनितनैश्च ॥ यो याति रागमुपयाति च नानुकंपां। ध्यानं तु रौषमिति संप्रवदंति तज्ज्ञाः " ॥३॥ " राज्यनो उपनोग, शयन, आसन, वाहन, स्त्री,गंध, माल्य, मणि, रत्न अने तेना आनूषणोनी अंदर जे मोहथी अत्यंत इच्छा-अनिझाप प्राप्त थाय, तेने विधानो आर्तध्यान कहे जे. १ जे छेदन, दहन, जंजन, मारण, बंध, प्रहार, दमन अने खंझनथी रागने प्राप्त थाय अने दया न लावे तेने विद्यानो रोषध्यान कहे ."२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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