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________________ द्वितीयप्रकाश. १७३ अर्थी सिद्धिने अनुकूल एवं ए व्रत प्रयत्नवमे सेववं. तेने माटे जावनानी गाथा या प्रमाणे छे ८८ धन्ना तेन मणिज्जा, जेहिं मणवयणकायसुद्धीए ॥ सव्वजियाणं हिंसा, चत्ता एवं विचितिजा " ॥ १ ॥ " जेमणे मन, वचन अने कायानी शुकिए करी सर्व जीवनी हिंसा बोमी बे, मन धन्य बे ने तेयो नमस्कार करवा योग्य बे, एम चिंतववं." १ naess वीजं स्थूल मृषावाद विरमण व्रत. मृषा एटले असत्य वचन, तेनाथी विरमनुं निवृत्ति थवं, ए वीजं मृषावाद विरमण व्रत कहेवाय बे. ते व्रत कन्यालीक वगेरेनी निवृत्ति करवारुप बे. तेने माटे कहे बे 66 कन्नागो भूअली, नासावहारं च कूमस स्किज्जं । थूलमली पंचद, चइए सुहुमंपि जहसत्ति " ॥ १ ॥ " ति स्थूल वस्तु संबंधी एटले अति दुष्ट अध्यवसायथी उत्पन्न ययेल अलीक (जु) मृषावादनो पांच प्रकारे त्याग कहे े. ते पांच प्रकार आ प्रमाणे बे. कन्यालीकं १ गवालीकं २ जुवलीकं ३ न्यासापहारः ४ कूटसादिकं च ५ ॥ निर्दोष कन्याने पण 'आ विष कन्या बे' एम कहेतुं, ते कन्यालीक कहेवाय बे. बहु दूधवाली गायने थोमा दूधवाली कहेवी, अने थोडा दूधवाली गायने बहु दूधवाली कहेवी, ते गवालीक कहेवाय छे. पारकी जमीनने पोतानी कहेवी ते जुबलीक कहेवाय बे. उपलक्षणयी तेवी रीते द्विपद (मनुष्य) चतुष्पद (पशु) ने अपद ( सर्पादि ) वगेरेनुं अलीक जाए। लेवें. प्रश्न करे, जो तेम उपलक्षणथी समजवानुं होय तो सर्व संग्रहादिपदादिक ग्रहण कम न कर्यु ? तेना उत्तरमां कहे बे के लोकोमां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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