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________________ १३६ अप्येकः क्षधितं भिक्ष, ० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ८-१६ ८. कोई क्रूर कुत्ता क्षुधित (भिक्षा के लिए पर्यटन करते हुए) भिक्षु को काट खाता है, उस समय मंद व्यक्ति वैसे ही विषाद को प्राप्त होता है जैसे अग्नि के छू जाने पर प्राणी। ६. (साधु-चर्या से) प्रतिकूल पथ पर चलने वाले" कुछ लोग कहते हैं-इस प्रकार का जीवन जीने वाले ये कृत का प्रतिकार कर रहे हैं। (अपने किये हुये कर्मों का फल भोग रहे हैं।) सूयगडो १ ८. अप्पेगे खुझियं भिक्खु सुणी डंसइ लूसए। तत्थ मंदा विसीयंति तेउपुट्ठा व पाणिणो ।। ६. अप्पेगे पडिभासंति पाडिपंथियमागया । पडियारगया एए जे एए एव-जीविणो।। १०. अप्पेगे वई जंजंति णिगिणा पिंडोलगाहमा। मुंडा कंडू-विणठेंगा उज्जल्ला असमाहिया ।१०। ११. एवं विप्पडिवण्णेगे अप्पणा उ अजाणया। तमाओ ते तमं जंति मंदा मोहेण पाउडा ।११॥ १२. पुट्ठो य दंसमसगेहि तणफासमचाइया । ण मे दिट्टे परे लोए कि परं मरणं सिया ? ॥१२॥ १०. कुछ लोग कहते हैं-ये नग्न, पिंड मांग कर खाने वाले," अधम, मुंड, खुजली के कारण विकृत शरीर वाले," मैले," और दुःखी हैं।" तत्र मन्दाः विषीदन्ति, तेजःस्पृष्टा इव प्राणिनः ॥ अप्येके प्रतिभाषन्ते, प्रातिपथिकत्वमागताः प्रतिकारगता एते, ये एते एवं-जीविनः ।। अप्येके वाचं युञ्जन्ति, नग्नाः पिण्डोलकाधमाः । मुण्डाः कण्डविनष्टाङ्गाः, उज्जल्लाः असमाहिताः ॥ एवं विप्रतिपन्ना एके, आत्मना तु अज्ञाः । तमसस्ते तमो यन्ति, मन्दा मोहेण प्रावृताः ।। स्पष्टश्च दंशमशकैः, तृणस्पर्शमशक्नुवन् । न मया दृष्टः परो लोकः, किं परं मरणं स्यात् ? ॥ ११. कुछ भिक्षु स्वयं अजान होने के कारण उक्त वचनों से मिथ्या धारणा बना लेते हैं। वे मंद मनुष्य मोह से" आच्छन्न होकर अन्धकार से (और भी घने) अन्धकार में जाते हैं।" १२. मुनि डांस और मच्छरों के" काटने पर तथा तण स्पर्श (घास के बिछौने) को न सह सकने के कारण (सोचने लगता है)-परलोक मैंने नहीं देखा, (तो फिर इस कष्टमय जीवन का) मृत्यु के अतिरिक्त और क्या (फल) होगा? १३. संतत्ता केसलोएणं बंभचेरपराइया तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा पविट्ठा व केयणे ।१३। सन्तप्ताः केशलोचेन, ब्रह्मचर्यपराजिताः । तत्र मन्दाः विषोदन्ति, मत्स्याः प्रविष्टा इव केतने ॥ १३. केशलोच" से संतप्त और ब्रह्मचर्य में पराजित मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे जाल में फंसी हुई मछलियां। १४. आत्मघाती चेष्टा करने वाले", मिथ्यात्व से ग्रस्त भावना वाले, हर्ष (क्रीडाभाव)" और द्वेष से युक्त कुछ अनार्य मनुष्य मुनियों को कष्ट देते हैं। १४. आयदंडसमायारा मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पओसमावण्णा केई लूसंतिऽणारिया ॥१४॥ १५. अप्पेगे पलियंतंसि चारो चोरो त्ति सुव्वयं । बंधति भिक्खयं बाला कसायवसणेहि य।१५। १६. तत्थ दंडेण संवीते मुट्टिणा अदु फलेण वा। णाईणं सरई बाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ आत्मदण्डसमाचाराः, मिथ्यासंस्थितभावनाः । हर्षप्रदोषं आपन्नाः, केचिद लूषयन्ति अनार्याः ॥ अप्येके पर्यन्ते, चारः चोर इति सुव्रतम् । बध्नन्ति भिक्षुकं बालाः, कषायवसनैश्च ॥ तत्र दण्डेन संवीतः, मुष्टिना अथवा फलेन इव । ज्ञातीनां स्मरति बालः, स्त्री वा क्रुद्धगामिनी॥ १५. सीमान्त प्रदेश में रहने वाले" कुछ अज्ञानी मनुष्य सुव्रती भिक्षु को 'यह गुप्तचर है, यह चोर हैऐसा कहकर लाल वस्त्रों से" बांधते हैं। १६. वहां डंडे, घूसे या थप्पड़ से" पीटे जाने पर अज्ञानी भिक्षु वैसे ही अपने ज्ञातिजनों को याद करता है" जैसे रूठ कर घर से भाग जाने वाली स्त्री। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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