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________________ भूल १. सूरं मण्णइ अप्पार्ण जाव जेयं ण पस्सई । जुतं दधम्मा [न्ना ? ] णं सिसुपालो व महारहं |१| २. पवाया सूरा रणसोसे संगमम्मि उबट्ठिए । माया पुत्तं ण जाणाइ जेएण परिच्छिए |२| ३. एवं सेहे वि अप्पुट्ठे भिक्खुचरिया अकोविए । सूरं मण्गइ अप्पार्ण जाव लुहं ण सेवए |३| ४. जया हेमंतमासम्म सीयं कुस सवायनं । तत्थ मंदा विसीयंति रज्जहीणा व खत्तिया |४| ५. पुडे विमणे गिम्हाहितावेणं सुपिवासिए । तत्थ मंदा विसोयंति मच्छा अप्पोदए जहा |५| ६. सया दत्तेसणा युव जायणा दुप्पणोल्लिया । कम्मता दुग्गा देव इच्चाहं पुढोजणा |६| ७. एए सद्दे अचायंता गामेलु नगरेस वा । तत्थ मंदा विसोयंति संगामम्मि व भीरुणो ॥७॥ Jain Education International : तदयं प्रभवणं तोसरा अध्ययन उवसग्गपरिण्णा उपसर्गपरिज्ञा पढमो उद्देसो पहला उद्देशक संस्कृत छापा शूरं मन्यते आत्मानं, यावज्जेतारं न पश्यति । युध्यमानं दृढधर्माणं ( धन्वानं ), शिशुपाल इव महारथम् ॥ प्रयाता. शूराः रणशीर्षे, संग्रामे उपस्थिते । माता पुत्रं न जानाति, जेत्रा परिविज्ञतः ॥ एवं सेवोऽपि अपुष्ट, भिक्षुचर्या-अकोविदः शूरं मन्यते आत्मानं, यावत् रूक्षं न सेवते ॥ यथा हेमन्तमासे, शोतं स्पृशति स्वातकम् । तत्र मन्याः विषीदन्ति राज्यहीना इव क्षत्रियाः ॥ स्पृष्टो प्रोष्माभितापेन, विमनाः सुपिपासितः । तत्र मन्दाः विषीदन्ति, मत्स्याः अल्पोदके यथा ॥ सदा दत्तैषणा याचना कर्मान्ता इत्याहुः दुःखं, दुष्प्रगोया । दुर्भगाश्चैव पृथग्जनाः ॥ एतान् शब्दान् अशक्नुवन्तः ग्रामेषु नगरेषु वा । तत्र मन्दा विषोदन्ति, संग्रामे इव भोरवः ।। हिन्दी अनुवाद १. जब तक जूझते हुए दृढ़ सामर्थ्य ( धनुष्य ) वाले' विजेता को नहीं देखता तब तक (कायर मनुष्य भी ) अपने आपको शूर मानता है, जैसे कि कृष्ण को देखने से पूर्व मिथुन' । २. अपने आपको शूर मानने वाले वे युद्ध के उपस्थित होने पर उसकी अग्रिम पंक्ति में जाते हैं । (जिसके आतंक से भयभीत ) माता अपने पुत्र को नहीं जान पाती, (ऐसे भयंकर युद्ध में) विजेता के द्वारा क्षतविक्षत होने पर वे दीन हो जाते हैं ।) २. इसी प्रकार अधर्माभि की चर्या में अनिपुग शैक्ष (नव दीक्षित) भी तब तक अपने आपको शूर मानता है जब तक वह रूक्ष (संयम) का सेवन नहीं करता । ४. जब जाड़े के महीनों में बर्फीली हवा और सर्दी लगती है तब मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे राज्य से च्युत राजा' । ५. जब गर्मी में धुप से पृष्ट होकर विमनस्क और बहुत प्यासे हो जाते हैं तब वे मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे थोड़े पानी में मछली । ६. निरंतर दत्त भोजन की एषणा करना कष्टकर है। याचना दुष्कर है । साधारण जन भी यह कहते हैं- ये अभागे कर्म से पलायन किए हुए हैं ।" ७. गावों और नगरों में इन ( जन साधारण द्वारा कहे गये) शब्दों को सहन न करते हुये मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे संग्राम में भीरू । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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