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________________ मुनिभिरुपपातिका नाम उपांगं लिखापितं ॥छ॥ वाच्यमानं चिरं नद्यात् ॥ शुभं भवतु लेखकवाचकयो: ! श्री (ख) यह प्रति श्रीचन्द गणेशदास गधैया पुस्तकालय' सरदारशहर से श्री मदनचन्दजी गोठी द्वारा प्राप्त है। इसके पत्र ५६ तथा पृष्ठ ११८ है। प्रत्येक पत्र १० इंच लम्बा ४॥ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पत्र में पाठ की ७ से 8 तक पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में ४० से ४५ तक अक्षर हैं। पाठ के ऊपर-नीचे दोनों ओर राजस्थानी भाषा का अर्थ है। प्रति के अन्त में लेखक की निम्नोक्त प्रशस्ति श्री उवाई उपांग पढ़म समत्तं ।। ग्रंथाग्रं १२२५॥॥छ। ॥श्री।। ।। संवत् १६६५ वर्षे पोष मासे शुक्लपक्षे सप्तमी तिथौ श्री सोमवारे । श्री श्री विक्रम नगरे। महाराजाधिराज महाराजा श्री रायसिंहजी विजयराजे पं० कर्मसिंह लिपीकृता॥छ।। (ग) यह प्रति 'श्रीचन्द गणेशदास गधैया पुस्तकालय' सरदारशहर से श्री मदन चन्दजी गोठी द्वारा प्राप्त है। इसके पत्र २६ तथा पृष्ठ ५२ हैं। प्रत्येक पत्र १०॥ इंच लम्बा तथा ४१, इंच चौड़ा है। प्रत्येक पंक्ति में १५ पंक्तिया तथा प्रत्येक पंक्ति में ४६ से ४५ तक अक्षर हैं। प्रति के अन्त में है...उवाईयं समत्तं ।। ग्रन्थान १२०० शुभमस्तु ।।छ। श्री। लिखा है किन्तु संवत नहीं दिया है। पर पत्र, अक्षर तथा चित्रों के आधार से यह प्रति १७ वीं शताब्दी की होनी चाहिए। (व) हस्तलिखित वृत्ति की प्रतिः यह 'श्रीचन्द गणेशदास गर्धया पुस्तकालय', सरदारशहर से श्री मदनचन्दजी गोठी द्वारा प्राप्त है। इसकी पत्र संख्या ७५ तथा पृष्ठ १५० हैं। प्रत्येक पत्र में १३ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में ५५ से ६० तक अक्षर हैं । प्रति १०। इंच लम्बी तथा ४। इंच चौड़ी है। प्रति शुद्ध तथा स्पष्ट है। अंतिम प्रशस्ति में लिखा है शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु ।। लेखकपाठकयोश्च भद्र भवतु ॥छ।। संवत् १९६६ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि भोमे लिखितं ।।छ।। श्रीः ।। यादृशं पुस्तके दृष्ट्वा ।। तादृशं लिखितं मया ।। यदि शुद्धमशुद्धं वा । मम दोषो न दीयते।। छ ।छ। (वृ०पा०) वृत्ति-सम्मत पाठान्तर कुछ विशेष-हस्तलिखित वृत्ति तथा मुद्रित वृत्ति में वाचनान्तर पाठ सदृश नहीं है। हमने मुल आधार हस्तलिखित वृत्ति को माना है। रायपसेणियं प्रस्तुत सूत्र का पाठ-निर्णय हस्तलिखित आदर्शों तथा वृत्ति के आधार पर किया गया है। सूर्याभ के प्रकरण में जीवा जीवाभिगम और दृढप्रतिज्ञ के प्रकरण में औपातिक सूत्र का भी उपयोग किया है। वृत्तिकार ने स्थान-स्थान पर वाचनाभेद की प्रचुरता का उल्लेख किया है। वृत्तिकाल में पाठभेद की समस्या उग्र थी, उत्तरकाल में वह उनतर हो गई। फिर भी हमने उपलब्ध साधन सामग्री का सूक्ष्मेक्षिकया प्रयोग कर पाठ निर्धारण किया है। अधिकार की भाषा मे कोई नहीं कह सकता कि यह पाठ-निर्धारण सर्वात्मना त्रुटि रहित है, किन्तु इतना कहा जा सकता है कि इस कार्य में तटस्थता और धुति का सर्वात्मना उपयोग किया गया है। प्रस्तुत सूत्र की पाठपूर्ति अत्यन्त श्रम साध्य हुई है। पाठपूति से सूत्र का शरीर बृहत हुआ है। साथ-ही-साथ पाठ-बोध की सुगमता और कथावस्तु की सरसता बढ़ी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003570
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Jivajivabhigame Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages639
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size13 MB
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