SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6 // [आवश्यकसूत्र तीसरा पद 'नमो प्रायरियाणं' है। प्राचार्य भारतीय संस्कृति का सच्चा संरक्षक है, पथप्रदर्शक है तथा पालोक-स्तंभ है। प्राचार्य कोई साधारण साधक न होकर एक विशिष्ट साधक है। प्राचार्य को धर्म-प्रधान श्रमण-संघ का पिता कहा है। "प्राचार्यः परमः पिता।" तीर्थंकर तो नहीं पर तीर्थकर सदश है। वह ज्ञानाचार, दर्शनाचार प्रादि पांच आचारों का स्वयं दृढ़ता से पालन करता है तथा अन्य साधकों को दिशा-दर्शन देता है / दीपक की तरह स्वयं जलकर दूसरे प्रात्म-दीपों को प्रदीप्त करता है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-यह चतुर्विध संघ है, इसकी आध्यात्मिक-साधना के नेतृत्व का भार आचार्य पर ही होता है। "नमो आयरियाणं" इस पद के द्वारा अनन्त-अनन्त भूत, वर्तमान एवं अनागत प्राचार्यों को नमस्कार किया जाता है। चतुर्थ पद में उपाध्यायों को नमस्कार किया गया है। यह पद भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। साधक-जीवन में विवेक-विज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। भेद-विज्ञान के द्वारा जड़ और चेतन के, धर्म और अधर्म के, उत्थान एवं पतन के, संसार और मोक्ष के पृथक्करण का भान होने पर ही साधक अपना उच्च एवं आदर्श जीवन बना सकता है और साधना के सर्वोत्तुंग शिखर पर पहुंच सकता है / अतः आध्यात्मिक विद्या के शिक्षण का कर्तृत्व उपाध्याय पर है। "उप-समीपेऽधीयते यस्मात इति उपाध्यायः / उपाध्याय मानव-जीवन की अन्तर्गन्थियों को सूक्ष्म पद्धति से सुलझाते हैं और पापाचार के प्रति विरक्ति की तथा सदाचार के प्रति अनुरक्ति की शिक्षा देने वाले हैं। "नमो उवज्झायाणं" इस पद द्वारा अनन्तानन्त भूत, वर्तमान एवं आगामी काल के उपाध्यायों को बन्दना की जाती है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र से युक्त तथा सूत्र पढ़ाने के कारण उपकारी होने से उपाध्याय नमस्कार के योग्य हैं। पांचवें पद में साधुओं को नमस्कार किया गया है। निर्वाण-साधक को अर्थात् सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्र रूप रत्नों और इनके द्वारा मोक्ष को साधने वाले अथवा सब प्राणियों पर समभाव रखने वाले, मोक्षाभिलाषी भव्यों के सहायक तथा अढ़ाई द्वीप रूप लोक में रहे हुए सभी सर्वज्ञ आज्ञानुवर्ती साधुनों को नमस्कार हो। “साधयति मोक्षमार्गमिति साधुः" अर्थात् जो सम्यग्ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र रूप रत्नत्रय की, मोक्षमार्ग की साधना करते हैं, वे साधु हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy