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________________ नमस्कारसूत्र] नवकार मंत्र के संबंध में जैन परम्परा की मान्यता है कि यह सम्पूर्ण जैन वाङमय अथवा चौदह पूर्वो का सार है, निचोड़ है। जैन साहित्य का सर्वश्रेष्ठ मंत्र नवकार मंत्र है। वह दिव्य समभाव का प्रमुख प्रतीक है। इसमें विना किसी साम्प्रदायिक भेदभाव के, विना किसी देश, जाति अथवा धर्म की विशेषता के केवल गुण-पूजा का महत्त्व बताया गया है। प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में नवकार-मंत्र का दूसरा नाम परमेष्ठी-मंत्र भी है। जो महान् प्रात्माएँ परम पद में अर्थात् उच्च स्वरूप में स्थित हैं, वे परमेष्ठी कहलाती हैं। नवकार मंत्र के नमस्कारमंत्र, परमेष्ठीमंत्र आदि अनेक नाम हैं। परन्तु सबसे प्रसिद्ध नाम नवकार मंत्र ही है / नवकारमंत्र में नौ पद हैं, अतः इसे नवकारमंत्र कहते हैं। पांच पद मुल पदों के हैं और शेष चार पद चूलिका के हैं। अरिहन्त आदि पांच पद साधक तथा सिद्ध की भूमिका के हैं और अन्तिम चार पद महामंत्र की महिमा के निदर्शक हैं। मुमुक्ष मानवों ने नमस्कार को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है / नमस्कार, नम्रता एवं गुणग्राहकता का विशुद्ध प्रतीक है। अपने से श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ अात्मानों को नमस्कार करने की परंपरा अनादिकाल से अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है / अरिहन्तों के बारह, सिद्धों के आठ, प्राचार्यों के छत्तीस, उपाध्यायों के पच्चीस एवं साधुओं के सत्ताईस गुण हैं। इन गुणों से युक्त इन पांचों पदों के वाच्य महान् आत्माओं को किया गया नमस्कार इस नश्वर संसार से सदा के लिये छुटकारा दिलाकर शाश्वत शिव-सुख का प्रदाता है / प्रथम पद अरिहंत का है। अरिहंत में दो शब्द हैं—'अरि' और 'हन्त' / अरि का अर्थ है--- राग-द्वेष प्रादि अन्दर के शत्रु और हन्त का अर्थ है-नाश करने वाला। अरिहन्त पद का दूसरा अर्थ इस प्रकार है-जिसने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार धनघातिक कर्मों का नाश करके केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त कर लिया है, वह जीवन्मुक्त परमात्मा अरिहन्त है। अरिहन्त पद के आचार्यों ने अनेक पाठान्तरों का उल्लेख किया है, यथा-अरहन्त, अर्हन्त, अरुहन्त, अरोहन्त आदि / जिनके लिये जगत् में कोई रहस्य नहीं रह गया है, जिनके केवलज्ञान-दर्शन से कुछ छिपा नहीं है, वे अरहन्त हैं / जो अशोकवृक्ष आदि प्रतिहायों से पूजित हैं, वे अर्हन्त हैं। जिन्हें फिर कभी जन्म नहीं लेना है अर्थात् जो जन्म-मरण से सदा के लिए छुटकारा पा चुके हैं, उन्हें 'अरुहन्त' या 'अरोहन्त' कहते हैं। दूसरा पद 'नमो सिद्धाणं' है। सिद्ध का अर्थ है पूर्ण अर्थात् जिनकी साधना पूरी हो चकी है / जो महान् आत्मा कर्म-मल से सर्वथा मुक्त होकर जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये छुटकारा पाकर अजर, अमर, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, वे सिद्ध पद से सम्बोधित होते हैं। सिद्धों का सिद्धत्व बौद्ध मान्यता के अनुसार दीपक बुझ जाने की तरह प्रभावस्वरूप नहीं है न किसी विराट् सत्ता में विलीन हो जाना है, अपितु सद्भाव स्वरूप है। सिद्धों के सूख अपार हैं। चक्रवर्ती आदि मनुष्यों को तथा समस्त देवों को भी जो सुख प्राप्त नहीं है वह अनुपम, अनन्त एवं अनिर्वचनीय आध्यात्मिक सुख सिद्धों को सदैव प्राप्त रहता है / विस्तार से उस सुख का वर्णन जानने के लिये औपपातिक सूत्र (मागम प्रकाशन समिति ब्यावर पृ. 180-181) देखना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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