SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती है।५ जिसकी आत्मा संयम में, तप में, नियम में संलग्न रहती है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है। प्राचार्य हरिभद्र ने लिखा है-जैसे चन्दन काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुगन्धित बना देता है, वैसे ही विरोधी के प्रति भी जो समभाव की सूगन्ध फैलाता है, उसी की सामायिक शुद्ध है।२७ समता के द्वारा साधक आत्मशक्तियों को केन्द्रित करके अपनी महान ऊर्जा को प्रकट करता है। मानव अनेक कामनाओं के भंवरजाल में उलझा रहता है, जिससे उसका व्यक्तित्व क्षत-विक्षत हो जाता है। द्वन्द्व और 7 वातावरण बना रहता है। बर्बरता, पशुता, संकीर्णता व राग-द्वष के विकार-जन्तु पनपते रहते हैं। जब मानव समता से विचलित हा तब प्रकृति में विकृति, व्यक्ति में तनाव, समाज में विषमता, युग में हिंसा के तत्त्व उभरे हैं। उन सभी को रोकने के लिये सन्तुलन और व्यवस्था बनाये रखने के लिये सामायिक को अावश्यकता है। सामायिक समता का लहराता हुआ निर्मल सागर है। जो साधक उसमें अवगाहन कर लेता है, वह राग-द्वेष के कर्दम से मुक्त हो जाता है। सामायिक की साधना बहुत ही उत्कृष्ट साधना है। अन्य जितनी भी साधनाएं हैं, वे सभी साधनाएं इसमें अन्तनिहित हो जाती है। प्राचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने सामायिक को चौदह पूर्व का अर्थपिड कहा है / 8 उपाध्याय यशोविजयजी ने सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांगी रूप जिनवाणी का साररूप बताया है। रंग-बिरंगे खिले हुए पुष्पों का सार गंध है, यदि पुष्प में गंध नहीं है, केवल रूप ही है तो वह केवल दर्शकों के नेत्रों को तृप्त कर सकता है, किन्तु दिल और दिमाग को ताजगी प्रदान नहीं कर सकता / दूध का सार घेत है / जिस दूध में घृत नहीं है, वह केवल नाममात्र काही दूध है। घृत से ही दूध में पौष्टिकता रहती है। वह शरीर को शक्ति प्रदान करता है। इसी प्रकार तिल का सार तेल है। यदि तिलों में से तेल निकल जाय, इक्ष खण्ड में से रस निकल जाय, धान में से चावल निकल जाय तो वह निस्सार बन जाता है। वैसे ही साधना में से समभाव यानी सामायिक निकल जाय तो वह साधना भी निस्सार है। केवल नाममात्र की साधना है / समता के प्रभाव में उपासना उपहास है। साधक मायाजाल के चंगुल में फंस जाता है। दूसरों की उन्नति को निहार कर उसके अन्तर्मानस में ईर्ष्या-अग्नि सुलगने लगती है, वैर-विरोध के जहरीले कीटाणु कुलबुलाने लगते हैं। इसीलिये सामायिक की आवश्यकता पर बल दिया गया है। भगवती सूत्र में वर्णन है कि पार्वापत्य कालास्यवेसी अनगार के समक्ष तुगिया नगरी के श्रमणोपासकों ने जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि सामायिक क्या है ? और सामायिक का अर्थ क्या है ? —अावश्यकनियुक्ति, 799 25. (क) जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य / तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि-भासियं / / (ख) अनुयोगद्वार 128 (ग) नियमसार 126 26. (क) जस्स सामाणिो अप्पा संजमे नियमे तवे। तस्स सामाइयं होइ, इइ केबलि-भासियं / / (ख) अनुयोगद्वार 127 (म) नियमसार 127 27. हरिभद्र अष्टक-प्रकरण 29-1 28. सामाइयं संखेवो चोइस पुब्बत्थपिंडोत्ति // 29. तत्त्वार्थवृत्ति 1-1 —आवश्यकनियुक्ति, 798 -विशेषा. भाष्य, मा. 2796 [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy