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________________ है। प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है-राग-द्वेष के कारणों में मध्यस्थ रहना सम है। मध्यस्थभावयुक्त साधक को मोक्ष के अभिमुख जो प्रवृत्ति है, वह सामायिक है / 20 जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने भी विशेषावश्यकभाष्य में यही परिभाषा स्वीकार की है", आवश्यकसूत्र की नियुक्ति, चणि, भाष्य और हारिभद्रीया बत्ति मलयगिरिवत्ति आदि में सामायिक के विविध दृष्टियों से विभिन्न अर्थ किये हैं। सभी जीवों पर मैत्री-भाव रखना साम है और साम का लाभ जिससे हो, वह सामायिक है। 12 पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करना ही सावद्ययोग-परित्याग कहलाता है। अहिंसा, समता प्रभृति सद्गुणों का प्राचरण निरवद्ययोग है। सावद्ययोग का परित्याग कर शुद्ध स्वभाव में रमण करना 'सम' कहलाता है। जिस साधना के द्वारा उस 'सम' की प्राप्ति हो, वह सामायिक है / 23 'सम' शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है और 'अयन' का अर्थ आचरण है। अर्थात् श्रेष्ठ आचरण का नाम सामायिक है। अहिंसा आदि श्रेष्ठ साधना समय पर की जाती है, वह सामायिक है। सामायिक की विभिन्न व्युत्पत्तियों पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उन सभी में समता पर बल दिया गया है। राग-द्वेष के विविध प्रसंग समुपस्थित होने पर आत्म-स्वभाव में सम रहना, वस्तुतः सामायिक है। समता से तात्पर्य है---मन की स्थिरता, राग-द्वेष का उपशमन और सुख-दुःख में निश्चल रहना, समभाव में उपस्थित होना। कर्मों के निमित्ति से राग-द्वेष के विषमभाव समुत्पन्न होते हैं, उन विषम भावों से अपने-यापको हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना, समता है। समता को ही गीता में योग कहा है। 14 मन, वचन और काय की दुष्ट वृत्तियों को रोककर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान को केन्द्रित कर देना सामायिक है। सामायिक करने वाला साधक मन, वचन और काय को वश में कर लेता है। विषय, कषाय और राग-द्वेष से अलग-थलग रहकर वह सदा ही समभाव में स्थित रहता है। विरोधी को देखकर उसके अन्तर्मानस में क्रोध की ज्वाला नहीं भड़कती और न हितैषी को देखकर वह राग से आह्लादित होता है। वह समता के गहन सागर में डुबकी लगाता है, जिससे विषमता की ज्वालाएँ उसकी साधना को नष्ट नहीं कर पातीं। उसे न निन्दा के मच्छर डॅसते हैं और न ईर्ष्या के बिच्छु ही डंक मारते हैं। चाहे अनुकूल परिस्थिति हो, चाहे प्रतिकूल, चाहे सुख के सुमन खिल रहे हों, चाहे दु:ख के नुकीले कांटे बींध रहे हों, पर वह सदा समभाव से रहता है। उसका चिन्तन सदा जागृत रहता है। वह सोचता है कि संयोग और वियोग-ये दोनों ही आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। ये तो शुभाशुभ कर्मों के उदय का फल हैं / परकीय पदार्थों के संयोग और वियोग से आत्मा का न हित हो सकता है और न अहित ही। इसलिए वह सतत समभाव में रहता है। प्राचार्य भद्रबाह ने कहा----जो साधक त्रस और स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता है, उसकी सामायिक शुद्ध 19. 'सम्' एकीभावे वर्तते / तद्यथा, संगतं धृतं संगतं तैलमित्युच्यते एकीभूतमिति गम्यते / एकत्वेन अयनं गमनं समयः, समय एव सामायिकम् / समयः प्रयोजनमस्येति वा विग्रह्य सामायिकम् / –सर्वार्थसिद्धि, 7, 21 20. समो--रागद्वेषयोरपान्तरालवर्ती मध्यस्थः, इण गतौ अयनं प्रयो गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समायः-- समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्तिः समाय एव सामायिकम् / —प्रावश्यक मलयगिरिवृत्ति, 854 21. रागहोसविरहियो समो त्ति अयणं अयो त्ति गमणं ति / समगमणं ति समायो स एव सामाइयं नाम / / -विशेषावश्यक भाष्य, 3477 22. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 3481 23. अहवा समस्स पामो गुणाण लाभो सि जो समायो सो। ---वि. भाष्य, गा. 3480 24. समत्वं योगमुच्यते। -भगवद्गीता, 2-48 [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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