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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] 45 3. मैथुन-संज्ञा वेद-मोहोदय का संवेदन मैथुन संज्ञा कहलाती है। वह भी चार कारणों से उत्पन्न होती है—१. शरीर पुष्ट बनाने से, 2. वेदमोहनीय कर्मोदय से, 3. स्त्री आदि को देखने से और 4. काम-भोग का चिंतन करने से / 4. परिग्रह-संज्ञा-लोभ-मोहनीय के उदय से मनुष्य की संग्रहवृत्ति या मूर्छा जागृत होती है वह परिग्रह-संज्ञा है। उसके भी चार कारण हैं-१. ममत्व बढ़ाने से, 2. लोभमोहनीय के उदय से, 3. धन-सम्पत्ति देखने से और 4. धन परिग्रह का चिन्तन करने से। . विकथा-सूत्र संयम को दूषित करने वाले एवं निरर्थक वार्तालाप को विकथा कहते हैं। स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा तथा राजकथा रूप चार विकथाओं के कारण जो कुछ अतिचार लगा हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ। (नारी साधिका के लिये 'पुरुषकथा' बोलना चाहिये। 1. स्त्रीकथा—अमुक देश, जाति, कुल की अमुक स्त्री सुन्दर अथवा कुरूप होती है। वह बहुत सुन्दर वस्त्राभूषण पहनती है। गाना भी बहुत सुन्दर गाती है। इत्यादि विचार से ब्रह्मचर्य आदि व्रतों में दोष लगने की संभावना होने से इसको अतिचार का हेतु माना गया है। 2. भक्तकथा-'भक्तकथा' आवाप, निर्वाप, आरम्भ एवं निष्ठान के भेद से चार प्रकार की है / आवाप–अमुक रसोई में इतना घी, इतना शाक, इतना मसाला ठीक रहेगा। निर्वाप-इतने पकवान थे, इतना शाक था, मधुर था, इस प्रकार देखे हुए भोज्य पदार्थ की कथा करना। आरम्भ-अमुक रसोई में इतने शाक और फल आदि की जरूरत रहेगी, इत्यादि / निष्ठान–अमुक भोज्य पदार्थों में इतने रुपये लगेंगे आदि / 3. देशकथा-देशों की विविध वेश-भूषा, शृगार-रचना, भोजनपद्धति, गृह-निर्माणकला, रीति-रिवाज आदि की प्रशंसा या निंदा करना देशकथा है। 4. राजकथा-राजाओं की सेना, रानियों, युद्ध-कला, भोग-विलास आदि का वर्णन करना, राजकथा कहलाती है। राजकथा चार प्रकार की है--१. अतियान, 2. निर्याण, 3. बलवाहन, 4. कोष / ध्यान-सूत्र ___ पवन रहित अर्थात् निर्वात स्थान में स्थिर दीप-शिखा के समान निश्चल, अन्य विषयों के संकल्प से रहित केवल एक ही विषय का चिन्तन ध्यान कहलाता है। अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थिर अध्यवसान एवं मन की एकाग्रता ध्यान है। वीतराग के मन का अभाव होने के कारण योगनिरोध ही उनका ध्यान होता है / ' ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से दो प्रकार का होता है / प्रार्त तथा रौद्र अप्रशस्त ध्यान हैं, अतः हेय-त्याज्य हैं / धर्म तथा शुक्ल प्रशस्त ध्यान हैं आचरणीय हैं। 1. अंतोमुहुत्तमित्तं, चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि / छउमत्थाण झाणं, जोगणिरोहो जिणाणंति / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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