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________________ 44] [आवश्यकसूत्र अर्थात्-अपनी आत्मा का हित चाहने वाले साधक को पाप बढ़ाने वाले क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन चारों कषायों का त्याग कर देना चाहिये। __ आत्मा का कषायों द्वारा जितना अहित होता है, उतना किसी भी अन्य शत्रु द्वारा नहीं होता। कषाय कर्मबन्ध के प्रबल कारण हैं / यही आत्मा को संसार-भ्रमण कराते हैं। कषाय के द्वारा जिसकी आत्मा कलुषित है, उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का समावेश नहीं हो सकता, ठीक उसी प्रकार जैसे काले कंबल पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ता। आत्मा के उत्थान तथा पतन के मूल कारण कषाय हैं। कषायों के तीव्र उद्रेक से आत्मा अधःपतन के गहरे गर्त में गिरती जाती है, क्योंकि कषायों का मन पर अधिकार हो जाने पर उनके विरोधी सभी सद्गुण एक-एक करके लुप्त हो जाते हैं कोहो पीई पणासेइ, माणो विणय-नासणो। माया मित्ताणि नासेई, लोभो सम्बविणासणो // उपसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे। मायमज्जव-भावेणं, लोभं संतोसमो जिणे // __ -दशवकालिक, अ. 8 / 38,36 क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है तथा लोभ समस्त सद्गुणों का नाश करता है / क्षमा से क्रोध को, विनय से अर्थात् मृदुता से मान को, सरलता से माया को और संतोष से लोभ को जीतना चाहिये। संज्ञा-सूत्र जीवों की इच्छा को संज्ञा कहते हैं / संज्ञा का अर्थ 'चेतना' भी होता है / प्रस्तुत में मोहनीय एवं असाता वेदनीय कर्म के उदय से जब चेतनाशक्ति विकारयुक्त हो जाती है तब वह 'संज्ञा' पदवाच्य होती है। श्रीपन्नवणा सूत्र के आठवें पद में संज्ञा के दस प्रकार बताए हैं / ' अनेक सूत्रों में सोलह भेद भी प्ररूपित किए गए हैं। मूल भेद चार हैं--१. आहार, 2. भय, 3. मैथुन, 4. परिग्रह / 1. आहार-संज्ञा आहारसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है। यथा-१. पेट खाली होने से, 2. क्षुधा वेदनीय के उदय से, 3. आहार को देखने से और 4. आहार सम्बन्धी चिन्तन करने से / 2. भय-संज्ञा-भयसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-१. अधैर्य रखने से, 2. भयमोह के उदय से, 3. भय उत्पन्न करने वाले पदार्थ को देखने से, 4. भय का चिन्तन करने से / भय मोहनीय के उदय से प्रात्मा में जो त्रास का भाव उत्पन्न होता है, वह भय मोहनीय है। 1. पाहार संज्ञा, 2. भय संज्ञा, 3. मैथुन संज्ञा, 4. परिग्रह संज्ञा, 5. क्रोध संज्ञा, 6. मान संज्ञा, 7. माया संज्ञा, 8. लोभ संज्ञा, 9. लोक संज्ञा, 1.. ओघ संज्ञा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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