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________________ [आवश्यकसूत्र हे भगवन् ! काल की प्रतिलेखना करने से क्या फल होता है ? काल की प्रतिलेखना से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होता है और ज्ञान गुण की प्राप्ति होती है / -उत्तराध्ययन सूत्र अ. 29 उपर्युक्त सूत्र काल-प्रतिलेखना का है / आगम में कथन है कि दिन के पूर्व भाग तथा उत्तर भाग में, इसी प्रकार रात्रि के पूर्व भाग तथा उत्तर भाग में, अर्थात् दिवस एवं रात्रि के चारों कालों में नियमित स्वाध्याय करना चाहिये। साथ ही वस्त्र पात्र रजोहरण आदि की प्रतिलेखना भी अावश्यक है। यदि प्रमादवश उक्त दोनों आवश्यक कर्तव्यों में भूल हो जाय तो उसकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करने का विधान है। प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न करने, टिकाये रखने, नष्ट करने और संयुक्त को वियुक्त तथा वियुक्त को संयुक्त करने में काल का महत्त्वपूर्ण योग है / अतः जीवन की प्रगति के प्रत्येक अंग को पालोकित रखने के लिए काल की प्रतिलेखना करना अर्थात् काल का ध्यान रखना अतीव आवश्यक है / जिस काल में जो क्रिया करनी चाहिये उस काल में वही क्रिया की जानी चाहिये / इसीलिये उत्तराध्ययन सूत्र में शास्त्रकार ने साधुनों के लिए कालक्रम (Time Table) निर्धारित कर दिया है। साथ ही यह भी निर्दिष्ट कर दिया है—'काले कालं समायरे'-अर्थात् प्रत्येक कार्य नियत समय पर ही करना चाहिये। दिवस और रात्रि का प्रथम और अन्तिम प्रहर स्वाध्याय के लिए निश्चित किया गया है / इस प्रकार अहोरात्र में स्वाध्याय के चार काल हैं / स्वाध्याय परम तप है। नवीन ज्ञानार्जन के लिए, अजित ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए तथा ज्ञानावरण कर्म की निर्जरा के लिए स्वाध्याय ही एक सबल साधन है। स्वाध्याय की एक बड़ी विशेषता है-चित्त की एकाग्नता। स्वाध्याय से चंचल चित्त की दौड़धूप रुक जाती है और वह केन्द्रित हो जाता है / यही कारण है कि उसके लिए चार प्रहर नियत किए गए हैं / ___ स्थानांगसूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि ने स्वाध्याय का अर्थ करते हुए लिखा है-- भलीभांति मर्यादा के साथ अध्ययन करना स्वाध्याय है--- 'सुष्ठ पामर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः' -स्थानांग 2 स्था. 130 शास्त्रकारों ने स्वाध्याय को नन्दन वन की उपमा दी है। जिस प्रकार नन्दन वन में प्रत्येक दिशा के भव्य से भव्य दृश्य मन को आनन्दित करने के लिए होते हैं, वहां जाकर मानव सब प्रकार के कष्टों को भूल जाता है, उसी प्रकार स्वाध्याय रूप नन्दन वन में भी एक से एक सुन्दर एवं शिक्षाप्रद दृश्य देखने को मिलते हैं, तथा मन दुनियावी झंझटों से मुक्त होकर एक अलौकिक लोक में विचरण करने लगता है। स्वाध्याय हमारे अन्धकारपूर्ण जीवनपथ के लिए दीपक के समान है। प्रतिलेखना साधु के पास जो भी वस्त्र पात्र आदि उपधि हो, उसकी प्रातःकाल एवं सायंकाल प्रतिलेखना करनी होती है। उपधि को बिना देखे पूजे उपयोग में लाने से हिंसा का दोष लगता है। शास्त्रोक्त समय पर स्वाध्याय या प्रतिलेखना न करना, शास्त्रनिषिद्ध समय पर करना स्वाध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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