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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [35 कपाटोद्घाटन-गृहस्थ के घर के द्वार के बंद किवाड़ खोलकर आहार-पानी लेना सदोष है, क्योंकि बिना प्रमार्जन किए कपाट-उद्घाटन से जीव-विराधना की सम्भावना रहती है। इस प्रकार घर में प्रवेश करके आहार लेने से साधक की असभ्यता भी प्रतीत होती है, क्योंकि गृहस्थ अपने घर के अन्दर किसी विशेष कार्य में संलग्न हो और साधु अचानक किवाड़ खोलकर अन्दर जाए तो यह उचित नहीं है / यह उत्सर्ग मार्ग है / यदि किसी विशेष कारण से आवश्यक वस्तु लेनी हो तथा यतनापूर्वक किवाड़ खोलने हों तो स्वयं खोले अथवा किसी अन्य से खुलवाये जा सकते हैं। यह अपवाद मार्ग है। ___ मंडीप्राभृतिका-अर्थात् अग्रपिंड लेना। तैयार किए हुए भोजन के कुछ अग्र-अंश को पुण्यार्थ निकाल कर जो रख दिया जाता है, वह अग्नपिंड कहलाता है। बलिप्राभूतिका-देवी-देवता आदि की पूजा के लिए तैयार किया हुआ भोजन बलि कहलाता है / ऐसा पाहार लेना साधु को नहीं कल्पता है / संकिए-आहार लेते समय भोजन के सम्बन्ध में किसी प्रकार की भी प्राधाकर्मादि दोष की आशंका से युक्त; ऐसा आहार कदापि नहीं लेना चाहिये। सहसाकार--'उतावला सो बावला' शीघ्रता में कार्य करना, क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर दोनों ही दृष्टियों से अहितकर है। अवृष्टाहृत-गृहस्थ के घर पर पहुंच कर साधु को जो भी वस्तु लेनी हो, वह जहां रक्खी हो, स्वयं अपनी आँखों से देखकर लेनी चाहिये। बिना देखे ही किसी वस्तु को ग्रहण करने से अदृष्टाहृत दोष लगता है। भाव यह है कि देय वस्तु न मालूम किसी सचित्त वस्तु पर रक्खी हुई हो ! अतः उसके ग्रहण करने से जीव-विराधना दोष लग सकता है। अतएव बिना देखे किसी भी वस्तु को लेना ग्राह्य नहीं है / __ अवभाषण भिक्षा–भोजन में किसी विशिष्ट वस्तु की याचना करना। स्वाध्याय तथा प्रतिलेखना दोषनिवृत्ति सूत्र पडिक्कमामि चाउक्कालं सज्झायस्स अकरणयाए, उभयो कालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए, दुप्पडिलेहणाए, अप्पमज्जणाए, दुप्पमज्जणाए, अइक्कमे, वइक्कमे, अइयारे, अणायारे जो मे देवसिओ अइयारो को तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / भावार्थ-स्वाध्याय तथा प्रतिलेखना सम्बन्धी प्रतिक्रमण करता हूं। यदि प्रमादवश दिन और रात्रि के प्रथम तथा अन्तिम प्रहर रूप चारों कालों में स्वाध्याय न किया हो, प्रातः तथा सन्ध्या दोनों काल में वस्त्र-पात्र आदि भाण्डोपकरण की प्रतिलेखना न की हो अथवा सम्यक-प्रकार से प्रतिलेखना न की हो, प्रमार्जना न की हो, अथवा विधिपूर्वक प्रमार्जना न की हो, इन कारणों से अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार अथवा अनाचार लगा हो तो वे सब मेरे पाप मिथ्या निष्फल हों। विवेचन-- (प्र.) कालपडिलेहणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? (उ.) कालपडिलेहणयाए णं नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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