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8. Where many women and men indulge in sexual intercourse, if a Jain ascetic (Shramana Nirgranthi) extracts the semen-pudgala from any inanimate source with the intention of manual work, he incurs an anutghātika (non-obstructive) monthly prāyaścitta (expiation). 9. Where many women and men indulge in sexual intercourse, if a Jain ascetic (Shramana Nirgranthi) extracts the semen-pudgala from any inanimate source with the intention of sexual intercourse, he incurs an anutghātika (non-obstructive) four-monthly prāyaścitta.
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________________ 382] [व्यवहारसूत्र शुक्र-पुद्गल निकालने का प्रायश्चित्तसूत्र 8. जत्थ एए बहवे इत्थीओ य पुरिसा य पण्हावेंति, तत्थ से समणे निग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि सुक्कपोग्गले निग्घाएमाणे हत्थकम्मपडिसेवणपत्ते आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं / 9. जत्थ एए बहवे इत्थीओ य पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे णिग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि सुक्कपोग्गले निग्धाएमाणे मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं। 8. जहां पर ये अनेक स्त्री-पुरुष मैथुनसेवन करते हैं, वहां जो श्रमण निर्ग्रन्थ हस्तकर्म के संकल्प से किसी प्रचित्त स्रोत में शुक्रपुद्गल निकाले तो उसे अनुद्घातिक मासिक प्रायश्चित्त प्राता है। 9. जहां पर ये अनेक स्त्री-पुरुष मैथुनसेवन करते हैं, वहां जो श्रमण निर्ग्रन्थ मैथनसेवन के संकल्प से किसी अचित्त स्रोत में शुक्र-पुद्गल निकाले तो उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त प्राता है। विवेचन-एकाकी भिक्षु के रहने के स्थानसंबंधी एवं कल्पसंबंधी विधि-निषेध के अनंतर इन सूत्रों में ब्रह्मचर्य महाव्रत के भंग करने की स्थिति का दो प्रकारों से कथन किया गया है। इस प्रकार की दूषित प्रवृत्ति की संभावना एकांत स्थान में ही अधिक संभव रहती है / यदि अनेक अगीतार्थ भिक्षु गीतार्थ की निश्रा बिना रहते हों तो गीतार्थ का संरक्षण न होने से उनमें भी ऐसी दूषित प्रवृत्ति का होना संभव है तथा गीतार्थ भिक्षु भी यदि अकेला रहे तो एकांत स्थान में सूत्रोक्त दूषित प्रवृत्ति की अधिक संभावना रहती है। इसलिए अगीतार्थ विहार और एकाकी विहार संबंधी सूत्र के अनंतर ही यह प्रायश्चित्त विधायक सूत्र कहा गया है / दशवकालिकसूत्र चूलिका 2 गा. 10 में भी परिस्थितिवश एकलविहार का विधान प्रथमद्वितीय चरण में करने के साथ ही शास्त्रकार ने तृतीय-चतुर्थ चरण में पापों के परित्याग करने की और कामभोगों में आसक्त न होते हुए विचरण करने की शिक्षा दी है / अत: सामान्य तरुण साधकों को और विशेषकर एकाकी भिक्षुत्रों को इस विषय में विशेष सावधान रहना चाहिए / अर्थात् आगमस्वाध्याय आदि के द्वारा संयम भावों की अत्यधिक पुष्टि करते हुए रहना चाहिए। गच्छस्थित साधूत्रों के उक्त प्रवृत्ति करने में गच्छ की या गच्छस्थित साधुओं की लज्जा आदि के कारण भी कुछ सुरक्षा हो जातो है, किन्तु एकाको भिक्षु के लिये उक्त सूत्रगत दूषित प्रवृत्ति के करने में पूर्ण स्वतंत्रता रहती है / दोनों सूत्रों में कही गई प्रवृत्ति को करने में भिक्षु को किसी व्यक्ति या स्त्री की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि दोनों सूत्रों में अचित्त स्रोत (स्थान) का कथन है। वह अचित्त स्थान कोई भी हो सकता है, किन्तु विचारों की परिणति एवं प्रवृत्ति में हस्तकर्म और मैथुनकर्म के दोष को भिन्नता होने से उसका प्रायश्चित्त अलग-अलग कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003494
Book TitleAgam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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