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________________ अठारहवां अध्ययन : सुसुमा ] [ 497 १०–तए णं रायगिहस्स णगरस्स अदूरसामते दाहिणपुरस्थिमे दिसिभाए सोहगुहा नाम चोरपल्ली होत्या, विसमगिरिकडग-कोडंब-संनिविट्ठा वंसीकलंक-पागार-परिक्खिता छिण्ण-सेलविसमप्पवाय-फरिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदितजणणिग्गम-पवेसा अभितरपाणिया सुदुल्लभजलपेरंता सुबहुस्स वि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा यावि होत्था / ' उस समय राजगृह नगर से न अधिक दूर और न अधिक समीप प्रदेश में, दक्षिणपूर्व दिशा ( प्राग्नेयकोण ) में सिंहगुफा नामक एक चोरपल्ली थी। वह पल्ली विषम गिरिनितंब के प्रान्त भाग में बसी हुई थी। बांस की झाड़ियों के प्राकार से घिरी हुई थी। अलग-अलग टेकरियों के प्रपात (दोपर्वतों के बीच के गडहे ) रूपी परिखा से युक्त थी / उसमें जाने-माने के लिए एक ही दरवाजा था, परन्तु भाग जाने के लिए छोटे-छोटे अनेक द्वार थे। जानकार लोग ही उसमें से निकल सकते और उसमें प्रवेश कर सकते थे / उसके भीतर ही पानी था। उस पल्ली से बाहर आस-पास में पानी मिलना अत्यन्त दुर्लभ था / चुराये हुए माल को छीनने के लिए आई हुई सेना भी उस पल्ली का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी / ऐसी थी वह चोरपल्ली! ११-तत्थ णं सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए णामं चोरसेणावई परिवसइ अहम्मिए जाव [अहम्मिठे अहम्मक्खाई अहम्माणुए अहम्मपलोई अहम्मपलज्जणे अहम्मसील-समुदायारे अहम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे विहरइ / हण-छिद-भिद-वियत्तए लोहियपाणी चंडे रुद्दे खुद्दे साहस्सिए उक्कंचणबंचण-माया-नियडि-कवड-कूड-साइ-संपयोगबहुले निस्सीले निव्वए निग्गुणे निप्पच्चक्खाणपोसहोववासे बहूणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सरिसिवाणं घायाए वहाए उच्छायणाए] अहम्मकेऊ समुट्टिए बहुनगरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी साहसिए सद्दवेही / से गं तत्थ सोहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेबच्चं जाव विहरइ / उस सिंहगुफा पल्ली में विजय नामक चोरसेनापति रहता था। वह अधार्मिक, [अत्यन्त क्रू र कर्मकारी होने के कारण अमिष्ठ, अधर्म की बात करने वाला, अधर्म-प्रलोकी--अधर्म पर ही दृष्टि रखने वाला, अधर्म-कृत्यों का अनुरागी, अधर्मशील और अधर्माचारी था तथा अधर्म से ही जीवन-निर्वाह कर रहा था। इसका घात कर डालो, इसे काट डालो, इसे भेद डालो, ऐसी दूसरों को प्रेरणा किया करता था। उसके हाथ रुधिर से लिप्त रहते थे / वह चंड-तीव्र रोष वाला, रौद्र--नृशंस, क्षुद्र-क्षुद्रकर्म करने वाला, साहसिक-परिणाम विचार किए बिना किसी भी काम में कद पड़ने वाला था। प्रायः उत्कंचन, वंचन, माया, निकृति (वकवृत्ति से दूसरों को एक मायाचार को ढंकने के लिए दूसरी माया करना), कपट ( वेष परिवर्तन करना आदि ). क (न्यूनाधिक तोलना-नापना) एवं स्वाति-अविश्रंभ का ही प्रयोग किया करता था। वह शीलहीन, 1. वाचनान्तर में इस प्रकार का पाठ है---'जत्थ चउरंगबलनियुत्तावि कूवियबला हय-महिय-पवरवीर-घाइयनिवडिय-चिंध-धय-बडाया कीरंति / ' ----अभयदेव टीका पृ. 245 (पू.) तात्पर्य यह कि उस चोरपल्ली में रहने वाले चोर इतने बलिष्ठ और सशक्त थे कि चुराया हुआ माल छीनने के लिए यदि सबल चतुरंगिणी सेना भेजी जाय तो उसे भी वे हत और मथित कर सकते थे-उसका मानमदन कर सकते थे और उसकी ध्वजा-पताका नष्ट कर सकते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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