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________________ 328 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तए णं से जियसत्तू सुबुद्धि एवं क्यासी-'केणं कारणेणं सुबुद्धी ! एस से फरिहोदए ?' तए णं सुबुद्धी जियसत्तु एवं बयासी--‘एवं खलु सामी ! तुम्हे तया मम एवमाइक्खमाणस्स पणवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयम नो सहह, तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था—'अहो णं जियसत्त संते जाव भावे नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, तं सेयं खलु ममं जियसत्तुस्स रण्णो संताणं जाव सब्भूयाणं जिणपन्नत्ताणं भावाणं अभिगमणट्टयाए एयमट्ठ उवाइणावेत्तए / एवं संपेहेमि, संपेहिता तं चेव जाव पाणियधरियं सद्दावेमि, सद्दावित्ता एवं वदामि–'तुम णं देवाणुप्पिया ! उदगरयणं जियसत्तुस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेहि / ' तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए।' तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने जलगृह के कर्मचारी को बुलवाया और बुलवाकर पूछा'देवानुप्रिय ! तुमने यह जलरत्न कहाँ से प्राप्त किया ?' तब जलगृह के कर्मचारी ने जितशत्र से कहा-'स्वामिन् यह जल रत्न मैंने सुवुद्धि अमात्य के पास से प्राप्त किया है।' तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य को बुलाया और उससे इस प्रकार कहा--- 'अहो सुबुद्धि ! किस कारण से तुम्हें मैं अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम हूं, जिससे तुम मेरे लिए प्रतिदिन भोजन के समय यह उदकरत्न नहीं भेजते ? देवानुप्रिय ! तुमने यह उदकरत्न कहाँ से पाया है ?' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है।' तब जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा-'हे सुबुद्धि ! किस प्रकार यह वही खाई का पानी है ?' तब सुबुद्धि ने जितशत्र से कहा---'स्वामिन् ! उस समय अर्थात् खाई के पानी का वर्णन करते समय मैंने आपको पुद्गलों का परिणमन कहा था, परन्तु आपने उस पर श्रद्धा नहीं की थी। तब मेरे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, विचार या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ.... अहो ! जितशत्रु राजा सत् यावत् भावों पर श्रद्धा नहीं करते, प्रतीति नहीं करते, रुचि नहीं रखते, अतएव मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि जितशत्र राजा को सत् यावत् सदभूत जिनभाषित भावों को समझाकर पुद्गलों के परिणमन रूप अर्थ को अंगीकार कराऊँ। मैंने ऐसा विचार किया। विचार करके पहले कहे अनुसार पानी को सँवार कर तैयार किया / यावत् आपके जलगृह के कर्मचारी को बुलाया और उससे कहा-देवानुप्रिय ! यह उदकरत्न तुम भोजन की वेला राजा जितशत्रु को देना। इस कारण हे स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है / ' २१--तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स 4 एयमढें नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोयमाणे अभितरद्वाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तब्भे देवाणुप्पिया ! अंतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह जाव उदगसंभाणिज्जेहिं दव्वेहि संभारेह / ' ते वि तहेव संभारेंति, संभारित्ता जियसत्तस्स उवणेति / / तए णं जियसत्तू राया तं उदगरयणं करतलंसि आसाएइ, आसायणिज्जं जाव सविदियगायपल्हाणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धि अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'सुबुद्धी ! एए णं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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