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________________ बारहवाँ अध्ययन : उदक ] [ 327 तत्पश्चात् सुबुद्धि अमात्य उस उदकरत्न के पास पहुँचा / पहुँचकर हथेली में लेकर उसका आस्वादन किया / प्रास्वादन करके उसे मनोज्ञ वर्ण से युक्त, गंध से युक्त, रस से युक्त, स्पर्श से युक्त, प्रास्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को अतिशय आह्लादजनक जानकर हृष्टतुष्ट हुप्रा / फिर उसने जल को सँवारने (सुस्वादु बनाने) दाले द्रव्यों से उसे सँवारा-सुस्वादु और सुगंधित बनाया। सँवारकर जितशत्रु राजा के जलगृह के कर्मचारी को बुलवाया। बुलवाकर कहा'देवानुप्रिय ! तुम यह उदकरत्न ले जाओ। इसे ले जाकर राजा जितशत्रु के भोजन की वेला में उन्हें पीने के लिए देना।' १९-तए णं से पाणियघरए सुबुद्धिस्स एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं उदयरयणं गिण्हाइ, गिण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवेइ। तए णं से जियसत्तू राया तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे जाव विहरइ / जिमियभुत्तुत्तराए णं जाव परमसुइभूए तंसि उदयरयणे जायविम्हए ते बहवे राईसर जाव एवं क्यासी—'अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे उदयरयणे अच्छे जाव सब्विदियगायपल्हायणिज्जे / ' तए णं बहवे राईसर जाव एवं वयासो-'तहेव णं सामी ! जंणं तुब्भे वयह, जाव एवं चेव पल्हायणिज्जे। तत्पश्चात् जलगह के उस कर्मचारी ने सुबुद्धि के इस अर्थ को अंगीकर किया / अंगीकार करके वह उदकरत्न ग्रहण किया और ग्रहण करके जितशत्रु राजा के भोजन की बेला में उपस्थित किया। तत्पश्चात् जितशत्रु राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का प्रास्वादन करता हुआ विचर रहा था / जीम चुकने के अनन्तर अत्यन्त शुचि-स्वच्छ होकर जलरत्न का पान करने से राजा को विस्मय हुा / उसने बहुत-से राजा, ईश्वर प्रादि से यावत् कहा--'अहो देवानुप्रियो ! यह उदकरत्न स्वच्छ है यावत् समस्त इन्द्रियों को और गात्र को आह्लाद उत्पन्न करने वाला है।' तब वे बहुत-से राजा, ईश्वर आदि यावत् इस प्रकार कहने लगे-- 'स्वामिन् ! जैसा प्राप कहते हैं, बात ऐसी ही है / यह जलरत्न यावत् पाला दजनक है। २०--तए णं जियसत्तू राया पाणियघरियं सहावेइ, सद्दाविता एवं बयासी-'एस णं तुब्भे देवाणुपिया ! उदयरयणे कओ आसाइए ?' तए णं पाणियघरिए जियसत्तु एवं वयासी-एस सामी ! मए उदयरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसाइए।' तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'अहो णं सुबुद्धी ! केणं कारणेणं अहं तव अणिट्टे अकंते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे, जेण तुमं मम कल्लाल्लि भोयणवेलाए इमं उदयरयणं न उवट्ठवेसि ? तए णं देवाणुप्पिया ! उदयरयणे कओ उवलद्धे ?' तए णं सुबुद्धो जियसत्तु एवं वयासी-एस णं सामा ! से फरिहोदए।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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