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________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 253 को आज्ञा दी, इस कारण मैं सोधा यहाँ पाया हूँ / हे स्वामिन् ! आपकी बाहुओं की छाया से परिगृहीत होकर यावत् मैं यहाँ बसना चाहता हूँ।' १०५-तए णं से अदीनसत्तू राया तं चित्तगरदारयं एवं वयासो-'कि णं तुमं देवाणुप्पिया ! मल्लदिन्नेणं निधिसए आणते ?' तत्पश्चात् अदीनशत्रु राजा ने चित्रकारपुत्र से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! मल्लदिन्न कुमार ने तुम्हें किस कारण देश-निर्वासन की आज्ञा दी ?' १०६-तए णं से चित्तयरदारए अदीणसत्तुरायं एवं वयासी-‘एवं खलु सामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ चित्तगरसेणि सद्दावेइ, सदावित्ता एवं क्यासी-'तुब्भे गं देवाणुप्पिया ! मम चित्तसभे' तं चेव सवं भाणियव्वं, जाव मम संडासगं छिदावेइ, छिदावित्ता निविसयं आणवेइ, तं एवं खलु सामी! मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निविसए आणत्ते।' तत्पश्चात् चित्रकारपुत्र ने अदीनशत्रु राजा से कहा-'हे स्वामिन् ! मल्लदिन्न कुमार ने एक वार किसी समय चित्रकारों की श्रेणी को बुला कर इस प्रकार कहा था-'हे देवानुप्रियो ! तुम मेरी चित्रसभा को चित्रित करो;' इत्यादि सब वृत्तान्त पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् कुमार ने मेरा संडासक कटवा लिया। कटवा कर देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी। इस प्रकार हे स्वामिन ! मल्लदिन्न कुमार ने मुझे देश-निर्वासन की प्राज्ञा दी है।' १०७--तए णं अदोणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं क्यासी-से केरिसए णं देवाणुप्पिया ! तुमे मल्लीए तदाणुरूवे रूवे निव्वतिए ?' तए णं से चित्तगरे कक्खंतराओ चित्तफलयं णोणेइ, णोणित्ता अदीणसत्तुस्स उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी-एस णं सामी! मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवस्स रूवस्स केइ आगार-भावपडोयारे निव्वत्तिए, णो खलु सक्का केणइ देवेण वा जाव [दाणवेण वा जक्खेम वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा] मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तित्तए।' तत्पश्चात् अदीनशत्रु राजा ने उस चित्रकार से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! तुमने मल्ली कुमारी का उसके अनुरूप चित्र कैसा बनाया था ?' तव चित्रकार ने अपनी काँख में से चित्रफलक निकाला। निकाल कर अदीनशत्रु राजा के पास रख दिया और रख कर कहा-'हे स्वामिन् ! विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली का उसी के अनुरूप यह चित्र मैंने कुछ प्राकार, भाव और प्रतिबिम्ब के रूप में चित्रित किया है / विदेहराज की श्रेष्ठ कुमारी मल्ली का हूबहू रूप तो कोई देव, [यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग तथा गंधर्व] भी चित्रित नहीं कर सकता। १०८-तए णं अदोणसत्तू राया पडिरूवजणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासीतहेव जाव पहारेत्थ गमणाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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