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________________ प्राठवां अध्ययन : मल्ली } कायर मत समझना) / निश्चय ही मुझे कोई देव, दानव [यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग या गन्धर्व--कोई भी देव अथवा दैवी शक्ति निर्ग्रन्थप्रवचन से चलायमान नहीं कर सकता, क्षुब्ध नहीं कर सकता और विपरीत भाव उत्पन्न नहीं कर सकता / तुम्हारी जो श्रद्धा (इच्छा) हो सो करो / ' इस प्रकार कह कर अर्थात उस पिशाच को चनौती देकर अहन्नक निर्भय, अपरिवर्तित मुख के रंग और नेत्रों के वर्ण वाला, दैन्य और मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पन्द, मौन और धर्मध्यान में लीन बना रहा। ६८–तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासयं दोच्चं पि तच्छ पि एवं वयासी'हं भो अरहन्नगा !' जाव अदीणविमणमाणसे निच्चले निप्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ / तत्पश्चात् वह दिव्य पिशाचरूप अर्हन्नक श्रमणोपासक से दूसरी बार और फिर तीसरी बार कहने लगा-'अरे अर्हन्नक !' इत्यादि कहकर पूर्ववत् धमकी दी। यावत् अहन्नक ने भी वही उत्तर दिया और वह दीनता एवं मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पंद, मौन और धर्मध्यान में लीन बना रहा--उस पर पिशाच की धमकी का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा / 69 --तए णं से दिवे पिसायरूवे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवगयं पासइ, पासित्ता बलियतरागं आसुरुत्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहि गिण्हइ, गिहित्ता सत्तत (ता) लाई जाव अरहन्नगं एवं वयासी—'हं भो अरहन्नगा ! अपस्थियपत्थिया ! णो खलु कप्पद तव सीलव्वय-गुण-बेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं तहेव जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ / तत्पश्चात उस दिव्य पिशाचरूप ने अहन्नक को धर्मध्यान में लीन देखा / देखकर उसने और अधिक कुपित होकर उस पोतवहन को दो उंगलियों से ग्रहण किया। ग्रहण करके सात-आठ मंजिल की या ताड़ के वृक्षों की ऊँचाई तक ऊपर उठाकर अर्हन्त्रक से कहा-'अरे अर्हन्नक ! मौत की इच्छा करने वाले ! तुझे शीलव्रत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पौषध आदि का त्याग करना नहीं कल्पता है, इत्यादि सब पूर्ववत् समझना चाहिए। किन्तु इस प्रकार कहने पर भी अर्हन्त्रक किंचित् भी चलायमान न हुआ और धर्मध्यान में ही लीन बना रहा। ८०-तए णं से पिसायरूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे उवसंते जाव निविण्णे तं पोयवहणं सणियं सणियं उरि जलस्स ठवेइ, उविता तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता दिव्वं देवरूवं यिउब्वइ, विउब्वित्ता अंतलिक्खपडिवन्ने सखिखिणियाइं जाव [दसद्धवष्णाई वत्थाई पवर] परिहिए अरहन्नगं समणोवासयं एवं वयासी तत्पश्चात् वह पिशाचरूप जब अर्हन्नक को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से चलायमान, क्षुभित एवं विपरिणत करने में समर्थ नहीं हुया, तब वह उपशान्त हो गया, यावत् मन में खेद को प्राप्त हुआ। फिर उसने उस पोतवहन को धीरे-धीरे उतार कर जल के ऊपर रखा / रखकर पिशाच के दिव्य रूप का संहरण किया-उसे समेट लिया और दिव्य देव के रूप की विक्रया की / विक्रिया करके, अधर स्थिर होकर धुधुरुयों की छम्छम् की ध्वनि से युक्त पंचवर्ण के उत्तम वस्त्र धारण करके प्रहनक श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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