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________________ 238 ] [ ज्ञाताधर्मकथा 'अरिहन्त भगवंत' यावत् सिद्धि को प्राप्त प्रभु को नमस्कार हो (इस प्रकार 'नमोत्थु णं' का पूरा पाठ उच्चारण किया)। फिर कहा- 'यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊँ तो मुझे यह कायोत्सर्ग पारना कल्पता है और यदि इस उपसर्ग से मुक्त न होऊँ तो यही प्रत्याख्यान कल्पता है, अर्थात् कायोत्सर्ग पारना नहीं कल्पता।' इस प्रकार कह कर उसने सागारी अनशन ग्रहण कर लिया। ६६-तए णं से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहन्नगं एवं वयासी 'हं भो अरहन्नगा! अपस्थियपत्थिया ! जाव [दुरंतपंतलक्खणा ! होणपुण्णचाउद्दसिया ! सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति] परिवज्जिया ! णो खलु कप्पइ तव सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई चालित्तए वा एवं खोभेत्तए वा, खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा, परिच्चइत्तए / तं जइणं तुम सीलब्वयं जाव ण परिच्चयसि तो ते अहं एवं पोयवहणं दोहि अंगुलियाहिं गेण्हामि, गेण्हित्ता सत्तट्टतलप्पमाणमेत्ताई उड्ढे वेहासे उम्विहामि, उविहित्ता अंतो जलसि णिच्छोलेमि, जेणं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / ' तत्पश्चात् वह पिशाचरूप वहाँ आया, जहाँ अन्नक श्रमणोपासक था। पाकर पहनक से इस प्रकार कहने लगा 'अरे अप्राथित'-मौत-की प्रार्थना (इच्छा) करने वाले ! यावत् [कुलक्षणी ! अभागिनीकाली चौदस के जन्मे !, लज्जा कीर्ति बुद्धि और लक्ष्मी से] परिवजित ! तुझे शीलव्रत-अणुव्रत,, गुणवत, विरमण-रागादि की विरति का प्रकार, नवकारसी आदि प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से चलायमान होना अर्थात् जिस भांगे से जो व्रत ग्रहण किया हो उसे बदल कर दूसरे भांगे से कर लेना, क्षोभयुक्त होना अर्थात् 'इस व्रत को इसी प्रकार पालू या त्याग हूँ" ऐसा सोच कर क्षुब्ध होना, एक देश से खण्डित करना; पूरी तरह भंग करना, देशविरति का सर्वथा त्याग करना कल्पता नहीं है। परन्तु तू शीलवत आदि का परित्याग नहीं करता तो मैं तेरे इस पोतवहन को दो उंगलियों पर उठाए लेता हूँ और सात-आठ तल की ऊँचाई तक आकाश में उछाले देता हूँ और उछाल कर इसे जल के अन्दर डुबाए देता हूँ, जिससे तू आर्तध्यान के वशीभूत होकर, असमाधि को प्राप्त होकर जीवन से रहित हो जायगा-मौत का ग्रा ६७--तए णं से अरहन्नए समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासो- 'अहं गं देवाणुप्पिया! अरहन्नए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे, नो खलु अहं सक्का केणइ देवेण वा जाव [दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा] निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभेत्तए वा विपरिणामेत्तए वा, तुमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव' अभिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीणविमणमाणसे निच्चले निष्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ / तव अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय ! मैं अर्हन्नक नामक श्रावक हूँ और जड़-चेतन के स्वरूप का ज्ञाता हूँ (मुझे कुछ ऐसा-वैसा अज्ञान या -. -. 2. अ. ग्र 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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