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________________ 216 ] / ज्ञाताधर्मकथा तब वे छहों बाल-मित्र महाबल राजा से कहने लगे---देवानुप्रिय ! यदि तुम प्रवजित होते हो तो हमारे लिए अन्य कौन-सा आधार है ? यावत् अथवा पालम्बन है, हम भी दीक्षित होते हैं / तत्पश्चात् महाबल राजा ने उन छहों बालमित्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! यदि तुम मेरे साथ [यावत् ] प्रवजित होते हो तो तुम जाओ और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने-अपने राज्य पर प्रतिष्ठित करो और फिर हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाओं पर आरूढ होकर यहाँ प्रकट होओ।' तब छहों बालमित्र गये और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को राज्यासीन करके यावत् महाबल राजा के समीप आ गये / १०--तए णं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए पाउन्भूए पासइ, पासित्ता हट्ठतुझे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी--'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! बलभद्दस्स कुमारस्स महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचेह / ' ते वि तहेव जाब बलभदं कुमार अभिसिचेति / ___ तब महाबल राजा ने छहों बालमित्रों को प्राया देखा / देखकर यह हर्षित और संतुष्ट हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! जाप्रो और बलभद्र कुमार का महान् राज्याभिषेक से अभिषेक करो।' यह प्रादेश सुनकर उन्होंने उसी प्रकार किया यावत् बलभद्र कुमार का अभिषेक किया। ११-तए णं से महब्बले राया बलभदं कुमारं आपुच्छइ। तओ णं महब्बलपामोक्खा छप्पिय बालवयंसए सद्धि पुरिससहस्सवाहिणि सिवियं दुरुढा वीयसोयाए रायहाणीए मज्झमझेणं णिग्गच्छति / णिग्गच्छित्ता जेणेव इंदकुभे उज्जाणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति / उवागच्छिता ते वि य सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेंति, करित्ता जाव पव्वयंति, एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहहिं चउत्थछट्टट्ठमेहि अप्पाणं भावमाणा जाव विहरंति / तत्पश्चात् महाबल राजा ने बलभद्र कुमार से, जो अब राजा हो गया था, दीक्षा की आज्ञा ली। फिर महाबल अचल आदि छहों बालमित्रों के साथ हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविका पर आरूढ होकर, वीतशोका नगरी के बीचोंबीच होकर निकले। निकल कर जहाँ इन्द्रकुम्भ उद्यान था और जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ आये। आकर उन्होंने भी स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया / लोच करके यावत् दीक्षित हुए। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, बहुत से उपवास, बेला, तेला, आदि तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। १२-तए णं तेसि महब्बलपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-'जं णं अम्हं देवाणुप्पिया ! एगे तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं णं अम्हेहि सव्वेहि सद्धि तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं वितरित्तए' ति कट्ट अण्णमण्णस्स एयमठ्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता बहूहिं चउत्थ जाव [छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहि मासद्धमासखमहि] विहरति / तत्पश्चात वे महाबल अादि सातों अनगार किसी समय इकटठे हए / उस समय उनमें परस्पर इस प्रकार बातचीत हुई—'हे देवानुप्रियो ! हम लोगों में से एक जिस तप को अंगीकार करके विचरे, हम सब को एक साथ वही तप:क्रिया ग्रहण करके विचरना उचित है।' अर्थात् हम सातों एक ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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