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________________ 180] [ ज्ञाताधर्मकथा यावत् उत्तरपूर्व दिशा में जाकर शुक परिव्राजक ने त्रिदंड आदि उपकरण यावत् गेरू से रंगे वस्त्र एकान्त में उतार डाले / अपने ही हाथ से शिखा उखाड़ ली / उखाड़ कर जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया / अाकर वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार करके मुडित होकर यावत् थावच्चापुत्र अनगार के निकट दीक्षित हो गया। फिर सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन किया / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने शुक को एक हजार अनगार (जो उसके साथ दीक्षित हुए थे), शिष्य के रूप मे प्रदान किये / थावच्चापुत्र की मुक्ति ___५२-तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नीयरीओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमिता बहिया जणवयविहारं विहरइ / तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धि संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता पुंडरीयं पच्चयं सणियं सणियं दुरूहइ / दुरूहित्ता मेघधणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं जाव (पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता जाव संलेहणा-झूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए) पाओवगमणं समणुवन्ने। तए णं से थावच्चापुत्ते बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदिता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिबुडे सव्वदुक्खप्पहीणे / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अनगार सौगंधिका नगरी से और नीलाशोक उद्यान से बाहर निकले / निकल कर जनपदविहार अर्थात् विभिन्न देशों में विचरण करने लगे / तत्पश्चात् वह थावच्चापुत्र.(अपना अन्तिम समय सन्निकट समझ कर) हजार साधुओं के साथ जहाँ पुण्डरीकशत्रुजय पर्वत था, वहाँ आये / पाकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर आरूढ हुए / आरूढ होकर उन्होंने मेघघटा के समान श्याम और जहाँ देवों का आगमन होता था. ऐसे पथ्वी शलापटक का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके संलेखना धारण कर पाहार-पानी का त्याग कर उस शिलापट्टक पर आरूढ होकर यावत् पादपोपगमन अनशन ग्रहण किया। तत्पश्चात् वह थावच्चापुत्र बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाल कर, एक मास की संलखना करके साठ भक्तों का अनशन करके यावत् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध हुए, बुद्ध हुए, समस्त कर्मों से मुक्त हुए, संसार का अन्त किया, परिनिर्वाण प्राप्त किया तथा सर्व दुःखों से मुक्त हुए। शैलक राजा की दीक्षा 53 --तए णं सुए अन्नया कयाई जेणेव सेलगपुरे नयरे, जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव समोसरिए। परिसा निग्गया, सेलो निग्गच्छइ / धम्म सोच्चा ज णवरं-'देवाणुप्पिया ! पंथगपामोक्खाइं पंच मंतिसयाई आपुच्छामि, मंडुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वयामि / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया !' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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