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________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 179 सहज प्रश्न हो सकता है कि नित्यता और अनित्यता परस्पर विरोधी धर्म हैं तो एक साथ एक ही पदार्थ में किस प्रकार रह सकते हैं ? उत्तर इस प्रकार है-प्रत्येक पदार्थ-वस्तु के दो पहल हैं-द्रव्य और पर्याय / ये दोनों मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं / द्रव्य के बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्य होता नहीं है। उदाहरणार्थप्रात्मा द्रव्य है और वह किसी न किसी पर्याय के साथ ही रहती है। द्रव्य और पर्याय परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। इनमें से वस्तु का द्रव्यांश शाश्वत है, इस दृष्टि से वस्तु नित्य है। पर्यायअंश पलटता रहता है, अतएव पर्याय की दृष्टि से वस्तु अनित्य है। हमारा अनुभव और अाधुनिक विज्ञान इस सत्य का समर्थन करता है। सामान्य और विशेष धर्म प्रत्येक पदार्थ के अभिन्न अंग हैं / इनमें से सामान्य को प्रधान रूप से दृष्टि में रख कर जब पदार्थों का निरीक्षण किया जाता है तो उनमें एकरूपता प्रतीत होती है और जब विशेष को मुख्य करके देखा जाता है तो जिनमें एकरूपता प्रतीत होती थी उन्हीं में अनेकताभिन्नता जान पड़ती है / अत: सामान्य की अपेक्षा एकत्व और विशेष की अपेक्षा अनेकत्व सिद्ध होता है। शुक की प्रव्रज्या ५१-एत्थ णं से सुए संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-~~ 'इच्छामि णं भंते ! तुन्भे अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए / धम्मकहा भाणियव्वा। ___ तए णं सुए परिवायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वयासी-- 'इच्छामि णं भंते ! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धि संपरिवुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए।' _ 'अहासुहं देवाणुप्पिया!' जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसोभागे तिदंडयं जाव' धाउरत्ताओ य एगंते एडेइ, एडित्ता सयमेव सिहं उप्पाडेड, उपाडित्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं अणगारं बंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अन्तिए मुडे भवित्ता जाव पन्वइए / सामाइयमाइयाइं चोहसपुव्वाइं अहिज्जइ / तए णं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ / थावच्चापुत्र के उत्तर से शुक परिव्राजक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ / उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं अापके पास से केवलीप्ररूपित धर्म सुनने की अभिलाषा करता हूँ। यहाँ धर्मकथा का वर्णन प्रौपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। __ तत्पश्चात् शुक परिव्राजक थावच्चापुत्र से धर्मकथा सुन कर और उसे हृदय में धारण करके इस प्रकार बोला-'भगवन् ! मैं एक हजार परिव्राजकों के साथ देवानुप्रिय के निकट मुडित होकर प्रवजित होना चाहता हूँ।' थावच्चापुत्र अनगार बोले-'देवानुप्रिय ! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो।' यह सुनकर 1. पंचम अ. सूत्र 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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