SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्ययन : अंडक] [ 141 हे देवानप्रिय ! बनमयूरी के इन अंडों को अपनी उत्तम जाति की मुर्गी के अंडों में डलवा देना, अपने लिए अच्छा रहेगा। ऐसा करने से अपनी जातिवन्त मुर्गियाँ इन अंडों का और अपने अंडों का अपने पंखों की हवा से रक्षण करती और सम्भालती रहेंगी तो हमारे दो क्रीडा करने के मयूरी-बालक हो जाएँगे।' इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की / स्वीकार करके अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! तुम जाम्रो / इन अंडों को लेकर अपनी उत्तम जाति की मुर्गियों के अंडों में डाल (मिला) दो।' उन दासपुत्रों ने उन दोनों अंडों को मुगियों के अंडों में मिला दिया। १७-तए णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरि पच्चणुभवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरूढा समाणा जेणेव चंपानयरी जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता देवदत्ताए गिहं अणुपविसंति / अणुपविसित्ता देवदत्ताए गणियाए विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति / दलइत्ता सक्कारेंति, सक्करिता संमाणेति, सम्माणिता देवदत्ताए गिहाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्ख मित्ता जेणेव सयाई सयाई गिहाइं तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था / तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरण करके उसी यान पर आरूढ होकर जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ देवदत्ता गणिका का घर था, वहाँ आये / आकर देवदत्ता गणिका के घर में प्रवेश किया। प्रवेश करके देवदत्ता गणिका को विपुल जीविका के योग्य प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर उसका सत्कारसन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके दोनों देवदत्ता के घर से बाहर निकल कर जहाँ अपने-अपने घर थे, वहाँ आये / पाकर अपने कार्य में संलग्न हो गये। शंकाशील सागरदत्तपत्र 18. तए णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए से णं कल्लं जाव' जलते जेणेव से वणमऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तंसि मऊरीअंडयंसि संकिए कंखिए विइगिच्छासमावन्ने भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने-कि णं ममं एत्थ कोलावणमऊरीपोयए भविस्सइ, उदाह णो भविस्सइ ?' त्ति कटु तं मऊरीअंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं उव्वत्तेइ, परियत्तेई, आसारेइ, संसारेइ, चालेइ, फंदेइ, घट्इ, खोभेइ, अभिक्खणं अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टियावेइ। तए णं से मऊरीअंडए अभिक्खणं अभिक्खणं उन्वत्तिज्जमाणे जाव टिद्रियावेज्जमाणे पोच्चडे जाए यावि होत्था। तत्पश्चात् उनमें जो सागरदत्त का पुत्र सार्थवाहदारक था, वह कल (दूसरे दिन) सूर्य के देदीप्यमान होने पर जहाँ वनमयूरी का अंडा था, वहाँ आया / प्राकर उस मयूरी अंडे में शंकित हुआ, अर्थात् वह सोचने लगा कि यह अंडा निपजेगा कि नहीं ? उसके फल की आकांक्षा करने लगा कि कब इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी? विचिकित्सा को प्राप्त हुया अर्थात् मयूरी-बालक हो जाने पर भी इससे क्रीडा रूप फल प्राप्त होगा या नहीं, इस प्रकार फल में संदेह करने लगा, भेद को प्राप्त हुआ, अर्थात् सोचने लगा कि इस अंडे में बच्चा है भी या नहीं? कलुषता अर्थात् बुद्धि की मलिनता 1. प्र. अ. 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy