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________________ 140) [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र दिन के पिछले प्रहर में देवदत्ता गणिका के साथ स्थूणामंडप से बाहर निकलकर हाथ में हाथ डालकर, सुभूमिभाग में बने हुए आलिनामक वृक्षों के गृहों में, कदली - गहों में, लतागहों में, ग्रासन (बैठने के) गहों में, प्रेक्षणगहों में, मंडन करने के गहों में, मोहन (मैथन) गहों में, साल वृक्षों के गृहों में, जाली वाले गृहों में तथा पुष्पगृहों में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए घूमने लगे। मयूरी का उद्वेग 14- तए णं ते सत्यवाहदारगा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं सा वणमऊरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ / पासित्ता भीया तत्था महया महया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्थवाहदारए मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी चिट्ठइ / तत्पश्चात् वे सार्थवाहदारक जहाँ मालुकाकच्छ था, वहाँ जाने के लिए प्रवृत्त हुए / तब उस वनमयूरी ने सार्थवाहपुत्रों को प्राता देखा / देखकर वह डर गई और घबरा गई / वह जोर-जोर से आवाज करके केकारव करती हुई मालुकाकच्छ से बाहर निकली। निकल कर एक वृक्ष की डाली पर स्थित होकर उन सार्थवाहपुत्रों को तथा मालुकाकच्छ को अपलक दृष्टि से देखने लगी। १५-तए णं सत्यवाहदारगा अण्णमण्णं सद्दावेति, सद्दाविता एवं क्यासी...'जह गं देवाणुप्पिया! एसा वणमऊरी अम्हे एज्जमाणा पासित्ता भीया तत्था तसिया उविग्गा पलाया महया महया सद्देणं जाव' अम्हे मालुयाकच्छयं च पेच्छमाणी पेच्छमाणी चिट्ठइ, तं भवियन्वमेत्थ कारणेणं' ति कटु मालुयाकच्छयं अंतो अणुपविसंति / अणुपविसित्ता तत्थ णं दो पुछे परियागए' जाव पासित्ता अन्नमन्नं सद्दाति, सद्दावित्ता एवं वयासो तब उन सार्थवाहपुत्रों ने आपस में एक दूसरे को बुलाया और इस प्रकार कहा--- 'देवानुप्रिय ! यह वनमयूरी हमें प्राता देखकर भयभीत हुई, स्तब्ध रह गई, त्रास को प्राप्त हुई, उद्विग्न हुई, भाग (उड़) गई और जोर-जोर की अवाज करके यावत् हम लोगों को तथा मालुकाकच्छ को पुनःपुनः देख रही है, अतएव इसका कोई कारण होना चाहिए।' इस प्रकार कह कर वे मालुकाकच्छ के भीतर घुसे / घुस कर उन्होंने वहाँ दो पुष्ट और अनुक्रम से वृद्धि प्राप्त मयूरी-अंडे यावत देखे, देख कर एक दूसरे को आवाज देकर इस प्रकार कहाअंडों का अपहरण १६.-'सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे इमे वणमऊरोअंडए साणं जाइमंताणं कुक्कूडियाणं अंडएसु य पक्खिवावित्तए / तए णं ताओ जातिमंताओ कुक्कुडियाओ एए अंडए सए य अंडए सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति / तए णं अम्हं एत्थ दो कीलावणगा मऊरीपोयगा भविस्संति / ' त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयम→ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता सए सए दासचेडे सदाति, सद्दावित्ता एवं वयासो--'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! इमे अंडए गहाय सयाणं जाइमंताणं कुक्कडीणं अंडएसु पक्खिवह / ' जाव ते वि पक्खिति / 1. तृ.अ. मुत्र 14. 2. तृ. अ. सूत्र 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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