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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] स्थापित (साधु के लिए रख छोड़ा हुआ), रचित (मोदक आदि के चूर्ण को पुनः साधु के लिए मोदक आदि रूप में तैयार किया हुआ), दुर्भिक्षभक्त (साधु के लिए दुर्भिक्ष के समय बनाया हुआ भोजन), कान्तारभक्त (साधु के निमित्त अरण्य में बनाया आहार), वर्दलिका भक्त (वर्षा के समय उपाश्रय में आकर बनाया भोजन), ग्लानभक्त (रुग्ण गृहस्थ नीरोग होने की कामना से दे, वह भोजन), आदि दूषित पाहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है / इसी प्रकार मुल का भोजन, कंद का भोजन, फल का भोजन, शालि आदि बीजों का भोजन अथवा हरित का भोजन करना भी नहीं कल्पता है। इसके अतिरिक्त हे पुत्र ! तू सुख भोगने योग्य है, दुःख सहने योग्य नहीं है / तू सर्दी सहने में समर्थ नहीं, गर्मी सहने में समर्थ नहीं है / भूख नहीं सह सकता, प्यास नहीं सह सकता, वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले विविध रोगों (कोढ़ आदि) को तथा अातंकों (अचानक मरण उत्पन्न करने वाले शूल आदि) को, ऊँचे-नीचे इन्द्रिय-प्रतिकुल वचनों को, उत्पन्न हुए बाईस परीषहों को और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार सहन नहीं कर सकता / अतएव हे लाल ! तू मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोग / बाद में भुक्तभोग होकर श्रमण भगवान महावीर के निकट प्रव्रज्या अंगीकर करना / १३०–तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वृत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासो-तहेव णं तं अम्मयाओ ! जंणं तुन्भे ममं एवं वयह–'एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे० पुणरवि तं चेव जाव तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि / ' एवं खलु अम्मयाओ! निग्गथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स, णो चेव णं धीरस्स / निच्छियवसियस्स एत्थं कि दुक्कर करणयाए ? तं इच्छामि गं अम्मयाओ ! तुबभेहि अब्भन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए। / तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर मेधकुमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा--हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं सो ठीक है कि--हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य है, सर्वोत्तम है, आदि पूर्वोक्त कथन यहाँ दोहरा लेना चाहिए; यावत् बाद में भुक्तभोग होकर प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना / परन्तु हे माता-पिता ! इस प्रकार यह निर्ग्रन्थ प्रवचन क्लीब-हीन संहनन वाले, कायर-चित्त की स्थिरता से रहित, कुत्सित, इस लोक सम्बन्धी विषयसुख की अभिलाषा करने वाले, परलोक के सुख की इच्छा न करने वाले सामान्य जन के लिए ही दुष्कर है। धीर एवं दृढ संकल्प वाले पुरुष को इसका पालन करना कठिन नहीं है। इसका पालन करने में कठिनाई क्या है ? अतएव हे माता-पिता ! आपकी अनुमति पाकर मैं श्रमण भगवान् महावीर के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। एक दिवस का राज्य 131- तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाइंति बहूहि विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकुलाहि य आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहाहि य आघवित्तए वा, पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा, ताहे अकामए चेव मेहं कुमारं एवं वयासी- 'इच्छामो ताव जाया ! एगदिवसमवि ते रायसिरि पासित्तए।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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