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________________ 62] [ ज्ञाताधर्मकथा 127 तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएइ मेहं कुमारं बहूहि विसयाणुलोमाहि आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य, आवित्तए वा पन्नवित्तए वा, सन्नवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउब्वेयकारियाहिं पन्नवाहि पन्नवेमाणा एवं वयासी तत्पश्चात् मेधकुमार के माता-पिता जब मेघकुमार को विषयों के अनुकूल पाख्यापना (सामान्य रूप से प्रतिपादन करने वाली वाणी) से, प्रज्ञापना (विशेष रूप से प्रतिपादन करने वाली वाणी) से, संज्ञापना (संबोधन करने वाली वाणी) से, विज्ञापना (अनुनय-विनय करने वाली वाणी) से समझाने, बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषयों के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली प्रज्ञापना से इस प्रकार कहने लगे. १२८-एस णं जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुतरे केलिए पडिपुन्ने णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निर-स्साए, गंगा इव महानदी पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो इव भुयाहि दुत्तरे, तिक्खं चक्कमियन्वयं गरुअं लंबेयव्वं, असिधार व्व संचरियव्वं। हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य (सत्पुरुषों के लिए हितकारी) है, अनुत्तर (सर्वोत्तम) है, कैवलिक-सर्वज्ञकथित अथवा अद्वितीय है, प्रतिपूर्ण अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने वाले गुणों से परिपूर्ण है, नैयायिक अर्थात् न्याययुक्त या मोक्ष की ओर ले जाने वाला है, संशुद्ध अर्थात् सर्वथा निर्दोष है, शल्यकर्त्तन अर्थात् माया आदि शल्यों का नाश करने वाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्तिमार्ग (पापों के नाश का उपाय) है, निर्याण का (सिद्धिक्षेत्र का) मार्ग है, निर्वाण का मार्ग है और समस्त दुःखों को पूर्णरूपेण नष्ट करने का मार्ग है / जैसे सर्प अपने भक्ष्य को ग्रहण करने में निश्चल दृष्टि रखता है, उसी प्रकार इस प्रवचन में दृष्टि निश्चल रखनी पड़ती है। यह छुरे के समान एक धार वाला है, अर्थात् इसमें दूसरी धार के समान अपवाद रूप क्रियायों का अभाव है। इस प्रवचन के अनुसार चलना लोहे के जो चबाना है / यह रत के कवल के समान स्वादहीन है-विषय-सूख से राहत है। इसका पालन करना गंगा नामक महानदी के सामने पूर में तिरने के समान कटि जाओं से महासमुद्र को पार करना है, तीखी तलवार पर आक्रमण करने के समान है, महाशिला जैसी भारी वस्तुओं को गले में बाँधने के समान है, तलवार की धार पर चलने के समान है। १२९-णो खलु कप्पइ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा, उद्देसिए वा, कीयगडे वा, ठवियए वा, रइयए वा, दुब्भिक्खभत्ते वा, कंतारभत्ते वा, वद्दलियाभत्ते वा, गिलाणभत्ते वा, मूलभोयणे वा, कंदभोयणे वा, फलभोयणे वा, बीयभोयणे वा, हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा / तुमं च णं जाया ! सुहसमुचिए पो चेव णं दुहसमुचिए / णालं सीयं, णालं उण्हं, णालं खह, णालं पिवासं, णालं वाइयपित्तियसिभियसन्निवाइयविविहे रोगायंके उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिन्ने सम्म अहियासित्तए / भुजाहि ताव जाया! माणस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि / हे पुत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्राधाकर्मी, औद्देशिक, क्रीतकृत (खरीद कर बनाया हुआ), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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