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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] भाव का परिचय देते हैं जो उनके जीवन में निरन्तर परिव्याप्त रहता था। एक राजकुमार और वह भी मगध का राजकुमार शिष्यत्व अंगीकार करने को लालायित है, इससे भी भगवान् का समभाव अखंडित ही रहता है। गुरु के लिए शिष्य बनाने का प्रयोजन क्या है ? शिष्य बनाने से गुरु की एकान्त और एकाग्र साधना में कुछ न कुछ व्याघात ही उत्पन्न हो सकता है, फिर भी साधु दो कारणों से किसी व्यक्ति को शिष्य रूप में दीक्षित और स्वीकृत करते हैं (1) साधु विचार करता है कि यह भव्य आत्मा संसार-सागर से तिरने का अभिलाषी है / इसे पथप्रदर्शन की आवश्यकता है / पथप्रदर्शन के विना बेचारा भटक जाएगा। इस प्रकार के विचार से करुणापूर्वक अपनी साधना में विक्षेप सहन करके भी उसे शिष्य रूप में ग्रहण कर लेते हैं / (2) दूसरा कारण है शासन की निरन्तर प्रवृत्ति / गुरु-शिष्य की परम्परा चालू रहने से भगवान् का शासन चिरकाल तक चालू रहता है, इस परम्परा के विना शासन चालू नहीं रह सकता। यही कारण है कि भगवान् ने प्रथम तो 'जहासुहं देवाणुप्पिया' कहकर मेघकुमार की इच्छा पर ही दीक्षित होना छोड़ दिया, फिर 'मा पडिबंधं करेह' कह कर दीक्षित होने के लिए हल्का संकेत भी कर दिया। माता-पिता के समक्ष संकल्पनिवेदन 116-- तए णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणामेव चाउग्धंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता चाउग्घंटे आसरहं दुरुहइ, दुरूहित्ता महया भडचडगरपहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ / पच्चोरुहिता जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं पायवडणं करेइ। करिता एवं वयासी–‘एवं खलु अम्मयाओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।' तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, अर्थात् उनकी स्तुति की, नमस्कार किया, स्तुति-नमस्कार करके जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आया। आकर चार घंटाओं वाले अश्व-रथ पर आरूढ हुअा। आरूढ होकर महान् सुभटों और बड़े समूह वाले परिवार के साथ राजगृह के बीचों-बीच होकर अपने घर आया। चार घंटाओं वाले अश्व-रथ से उतरा / उतरकर जहाँ उसके माता-पिता थे, वहीं पहुंचा। पहुंचकर माता-पिता के पैरों में प्रणाम किया / प्रणाम करके उसने इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर के समीप धर्म श्रवण किया है और मैंने उस धर्म की इच्छा की है, बार-बार इच्छा की है। वह मुझे रुचा है।' ११७–तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वयासी---'धन्नो सि तुमं जाया ! संपुन्नो सि तुम जाया ! कयत्थो सि तुम जाया ! जं णं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।' तब मेघकुमार के माता-पिता इस प्रकार बोले- 'पुत्र ! तुम धन्य हो, पुत्र ! तुम पूरे पुण्यवान् हो, हे पुत्र ! तुम कृतार्थ हो कि तुमने श्रमण भगवान् महावीर के निकट धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुम्हें इष्ट, पुनः पुनः इष्ट और रुचिकर भी हुआ है।'' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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