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________________ [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार को और उस महती परिषद् को, परिषद् के मध्य में स्थित होकर विचित्र प्रकार के श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का कथन किया। जिस प्रकार जीव कर्मों से बद्ध होते हैं, जिस प्रकार मुक्त होते हैं और जिस प्रकार संक्लेश को प्राप्त होते हैं, यह सब धर्मकथा औपपातिक सूत्र के अनुसार कह लेनी चाहिए / यावत् धर्मदेशना सुनकर परिषद् अर्थात् जन-समूह वापिस लौट गया / प्रवज्या का संकल्प ११५---तए णं मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हठ्ठतुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--'सद्दहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवं पत्तयामि णं, रोएमि णं, अब्भुठेमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेव तं तुब्भे वदह / जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तओ पच्छा मुंडे भवित्ता गं पब्वइस्सामि / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के पास से मेघ कुमार ने धर्म श्रवण करके और उसे हृदय में धारण करके, हृष्ट-तुष्ट होकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा--भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, उसे सर्वोत्तम स्वीकार करता हूँ, मैं उस पर प्रतीति करता है। मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन रुचता है, अर्थात जिनशासन के अनुसार प्राचरण करने की अभिलाषा करता हूँ, भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ, भगवन् ! यह ऐसा ही है (जैसा आप कहते हैं), यह उसी प्रकार का है, अर्थात् सत्य है / भगवन् ! मैंने इसकी इच्छा की है, पुनः-पुन: इच्छा को है, भगवन् ! यह इच्छित और पुनः-पुनः इच्छित है / यह वैसा ही है जैसा आप कहते हैं। विशेष बात यह है कि हे देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता की आज्ञा ले लू, तत्पश्चात् मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करूगा।' भगवान् ने कहा- 'देवानुप्रिय ! जिससे तुझे सुख उपजे वह कर, उसमें विलम्ब न करना।' विवेचन-धर्म मुख्यतः श्रवण का नहीं किन्तु आचरण का विषय है। अतएव धर्मश्रवण का फल तदनुकूल आचरण होना चाहिए। राजकुमार मेघ ने पहली बार धर्मदेशना श्रवण की और उसमें उसके आचरण की बलवती प्रेरणा जाग उठी / बड़े ही भावपूर्ण एवं दृढ़ शब्दों में बह निम्रन्थधर्म के प्रति अपनी प्रान्तरिक श्रद्धा निवेदन करता है, सामान्य पाठक को उसके उद्गारों में पुनरुक्ति का आभास हो सकता है, किन्तु यह पुनरुक्ति दोष नहीं है, उसकी तीव्रतर भावना, प्रगाढ श्रद्धा और धर्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की गहरी लालसा की अभिव्यक्ति है / मेघ जब भगवान से प्रव्रज्या ग्रहण करने का विचार प्रकट करता है तो भगवान् उसी मध्यस्थ Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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