________________ छठा शतक : उद्देशक-५ ] [ 55 हव्वमागच्छिज्जा। से गं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाव देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे जाब एकाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे वीतीवएज्जा, अत्थेगइयं तमुक्कायं वीतीवएज्जा, प्रत्थेगइयं तमक्कायं नो वीतीवएज्जा / एमहालए णं गोतमा ! तमक्काए पन्नत्ते / [5 प्र.] भगवन् ! तमस्काय कितना बड़ा कहा गया है ? [5 उ. गौतम ! समस्त द्वीप-समुद्रों के सर्वाभ्यन्तर अर्थात्-बीचोंबीच यह जम्बूद्वोप है। यावत् यह एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाइस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है / कोई महाऋद्धि यावत् महानुभाव वाला देव--'यह चला. यह चला'; यों करके तोन चुटकी बजाए, उतने समय में सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र वापस आ जाए, इस प्रकार की उत्कृष्ट और त्वरायुक्त यावत् देव की गति से चलता हुआ देव यावत् एक दिन, दो दिन, तीन दिन चले, यावत् उत्कृष्ट छह महीने तक चले तब जाकर कुछ तमस्काय को उल्लंघन कर पाता है, और कुछ तमस्काय को उल्लंघन नहीं कर पाता। हे गौतम ! तमस्काय इतना बड़ा (महालय) कहा गया है। 6. अस्थि गं भंते ! तमुकाए गेहा तिवा, गेहावणा ति वा ? णो इण? समट्ठ। [6 प्र.] भगवन् ! तमस्काय में गृह (घर) हैं, अथवा गृहापण (दूकाने) हैं ? [6 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 7. अस्थि पं भंते ! तमुकाए गामा ति वा जाव सन्निसा ति वा? णो इण? समट्ठ। [7 प्र. भगवन् ! तमस्काय में ग्राम हैं यावत् अथवा सन्निवेश हैं ? [7 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 8. [1] अस्थि णं भंते ! तमुक्काए पोराला बलाहया संसेयंति,, सम्मुच्छंति, वासं वासंति ? हंता, अस्थि / [8-1 प्र. भगवन् ! क्या तमस्काय में उदार (विशाल) मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम ! ऐसा है / [2] तं भंते ! कि देवो पकरेति, असुरो पफरेति ? नागो पकरेति ? गोयमा ! देवो वि पकरेति, असुरो वि पकरेति, णागो वि पकरेति / [8-2 प्र.] भगवन् ! क्या उसे (मेघ-संस्वेदन-सम्मूर्च्छन-वर्षण) देव करता है. असुर करता है या नाग करता है [7-2 उ ] हाँ, गौतम ! (ऐसा) देव भी करता है, असुर भी करता है और नाग भी करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org